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प्रस्तावना
के तट पर स्थित मंडूकेश्वर में तपश्चरण करने लगा। अतः श्रीचन्द्र ने अपना यह कथाकोष वि० सं० १०५२ में या उसके एक दो वर्ष पूर्व ही बनाया होगा। जिससे ग्रंथ का विषय स्पष्ट हो गया है।
पाठवीं प्रशस्ति 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार की है' जो स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्डक नामक उपासकाध्ययन रूप गंभीर कृति का व्याख्यान मात्र है। कवि ने इस प्राधार ग्रंथ को २१ संधियों में विभाजित किया है। जिसकी प्रानुमानिक श्लोक संख्या चार हजार चार सौ अट्ठाईस बतलाई गई है । कथन को पुष्ट करने के लिए अनेक उदाहरण और कथानों को प्रस्तुत किया गया है।
प्रशस्ति में हरिनन्दि मुनीन्द्र, समन्तभद्र, अकलंक, कुलभूषण पाद पूज्य (पूज्यपाद) विद्यानन्दि, अनन्तवीर्य, वरषेण, महामति वीरसेन, जिनसेन, विहंगसेन, गुणभद्र, सोमराज, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदंत श्रीहर्ष, और कालिदास नाम के पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख किया गया है।
____ इस श्रावकाचार को कवि ने संवत् ११२३ में कर्ण नरेन्द्र के राज्यकाल में श्रीबालपुर में पूर्ण किया था । यह कर्ण देव वही कर्णदेव ज्ञात होते हैं जो राजा भीमदेव के लघु पुत्र थे और जिनका राज्य काल 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के कर्ता मेरूतुंग के अनुसार सं० ११२० से ११५० तक उन्नीसवर्ष आठ महीना और इक्कीस दिन माना जाता है । इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त कवि की अन्य रचनाएँ अन्वेषणीय हैं। कवि परिचय
कवि श्रीचन्द्र कुंदकुंदान्वय देशीगण के प्राचाय सहस्रकीति के प्रशिष्य थे और सहस्रकीति के (देवचंद, वासवमुनि, उदयकीति, शुभचंद्र और वीरचंद्र इन) पांच शिष्यों में से यह वीरचंद्र अंतिम शिष्य थे। इन पांचों का समय भी प्रायः सहस्रकीर्ति के सम सामयिक होना चाहिए। सहस्रकीति के गुरु का नाम श्रुतिकीति और श्रुतिकीर्ति के शिष्य श्रीकीर्ति थे। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी के मध्य भाग से लेकर बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है।
___८वीं प्रशरित 'रयणकरण्डसावयायार' (रत्नकरण्डश्रावकाचार) की है जिसका परिचय सातवीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है।
हवीं प्रशस्ति 'सुकमाल चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि विबुध श्रीधर हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में छह संधियाँ और २२४ कड़वक हैं, जिनमें सुकमाल स्वामी का जीवन-परिचय दिया हुआ है। कवि ने सुकमाल के पूर्वजन्म का वृत्तान्त देते हुए लिखा है कि वे पहले जन्म में कौशाम्बी के राजा के राजमंत्री पुत्र थे और उनका नाम वायुभूति था, उन्होंने रोष में आकर अपनी भाभी के मुख में लात मारी थी, जिससे कुपित हो उसने निदान किया था कि मैं तेरी इस टांग को खाऊंगी। अनन्तर अनेक पर्यायें धारण कर जैनधर्म के प्रभाव से उज्जैनी में सेठ-पुत्र हुए थे, वे बाल्यावस्था से ही अत्यन्त सुकुमार थे, अतएव उनका नाम सुकमाल रक्खा गया। पिता पुत्र का मुख देखते ही दीक्षित हो गया और आत्म-साधना में लग गया। माता ने बड़े यत्न से पुत्र का लालन-पालन किया और उसे सुन्दर महलों में रख कर सांसारिक भोगोपभोगों में अनुरक्त किया। उसकी ३२ सुन्दर स्त्रियां थीं, जब उसकी प्रायु अल्प रह गई, तब उसके मामा ने, जो साधु थे, महल के पीछे जिन मंदिर में चातुर्मास किया और अन्त में स्तोत्र पाठ को सुनते ही सुकमाल का मन देहभोगादि से विरक्त हो गया और वह एक रस्सी के सहारे महल से नीचे उतरा और जिन मंदिर में जाकर मुनिराज को नमस्कार कर प्रार्थना की कि भगवन् प्रात्म-कल्याण का मार्ग बताइये । उन्होंने कहा कि तेरी आयु तीन दिन की शेष रह गई है। अतः शीघ्र ही प्रात्म-साधना में तत्पर हो। सुकमाल ने जिनदीक्षा लेकर और प्रायोपगमन संन्यास लेकर कठोर तपश्चरण किया। वे शरीर से जितने सुकोमल थे, उपसर्ग