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जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह
परीषहों के जीतने में वे उतने ही कठोर थे । वन में समाधिस्थ थे, एक श्यालनी ने अपने बच्चे सहित श्राकर उसके दाहिने पैर को खाना शुरू किया श्रौर बच्चेने बायें पैर को उन्होंने उस अमित कष्ट को शांतिसे बारह भावनाओं का चिन्तन करते हुए सहन किया और सर्वार्थसिद्धि में देव हुए। ग्रंथ का चरित भाग बड़ा ही सुन्दर है ।
कवि ने यह ग्रंथ बलडइ ( ग्रहमदाबाद ) गुजरात नगर के राजा गोविन्दचन्द्र के काल में साहूजी सुपुत्र पुरवाड कुलभूषण कुमार की प्रेरणा से बनाया है। राजा गोबिन्दचन्द्र कौन थे और उन्होंने कितने वर्ष राज्य किया है, यह अभी अज्ञात है। हां, कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के शुरू में संस्कृत पद्यों में कुमार की मंगल कामना की है और बतलाया है कि वे जिनेन्द्रभक्त थे, संसार के देह-भोगों से विरक्त थे, उन्हें दान देने का ही एक व्यसन था और विद्वानों में प्रीति थी, इस तरह वह जितेन्द्रियकुमार जयवन्त रहें ' और प्रस्तुत ग्रन्थ कवि ने उक्त कुमार के ही नामांकित किया है । कवि ने ग्रन्थ में नारी के स्वरूप-चित्ररण में परम्परागत उपमानों का ही प्रयोग किया है । कथन-शैली रोचक और प्रवाह युक्त है ।
कवि श्रीधर ने ग्रन्थ प्रशस्ति में अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया, जिससे उनकी गुरु परम्परा का उल्लेख किया जा सके । किन्तु कवि ने लिखा है कि बलडइ ग्राम के जिनमंदिर में पोमसेण (पद्मसेन) नाम के मुनि अनेक शास्त्रों का व्याख्यान करते थे । श्रीधर ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १२०८ (सन् १९५१) में मगरि कृष्णा तृतीया के दिन समाप्त किया है ।
१० वीं प्रशस्ति 'हरिवंस पुराण' की है, जिसके कर्ता कवि धवल हैं । इस ग्रन्थ में जैनियों के २२ वें तीर्थंकर यदुवंशी भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा श्रंकित की गई है, साथ ही महाभारत के पात्र कौरव और पाण्डव एवं श्रीकृष्ण प्रादि महापुरुषों का भी जीवन चरित्र १२२ संधियों में दिया हुआ है । जिससे महाभारत काल का ऐतिहासिक परिचय सहज ही मिल जाता है। ग्रंथ की रचना प्रधानतः अपभ्रंश भाषा के 'पटिका' और अलिल्लाह' छन्द में हुई है । तथापि उसमें पद्धड़िया, सोरठा, घत्ता, जाति, नाशिनी, विलासिनी और सोमराजी आदि छन्दों का भी स्पष्ट प्रयोग हुआ है । काव्य की दृष्टि से ग्रन्थ के कितने ही वर्णन सजीव हैं । रसों में शृंगार, वीर, करुण और शान्त रसों के अभिव्यंजक अनेक स्थल दिए हुए हैं। श्रीकृष्ण और कंस के युद्ध का वर्णन भी सजीव हुआ है ।
'महा चंड चित्ता भडा छिण्ण गत्ता, धनुबारणहत्था सकुंता समत्था ।
पहारंति सूराण भज्जंति धीरा, सरोसा सतोसा सहासा सचासा ॥ - संधि ६०, ४
प्रचण्ड चित्तवाले योद्धाओं के गात्र टूक-टूक हो रहे हैं, और धनुषबारण हाथ में लिए हुए भाल चलाने में समर्थ सूर प्रहार कर रहे हैं, परन्तु क्रोध, सन्तोष, हास्य और प्राशा से युक्त धीर वीर योद्ध विचलित नहीं हो रहे हैं। युद्ध की भीषणता से युद्ध स्थल विषम हो रहा है, सैनिकों की मारो मारो की ध्वनि से प्रकाश गूंज रहा है-रय वाला रथवाले की भोर, अश्व वाला अश्व वाले की नोर, और गज गज की ओर दौड़ रहा, धानुष्क वाला धानुष्क वाले की भोर झपट रहा है, वाद्य जोर से शब्द कर रहे हैं
१. भक्तिर्यस्य जिनेन्द्रवाद युगले धर्म मतिः सर्वदा । वैराग्यं भव-भोगबन्धविषये वांछा जिनेशागमे ॥ सद्दाने व्यसने गुरौ विनयिता प्रोतिर्बुधाः विद्यते, स श्रीमान् जयताजितेन्द्रियरिपुः श्रीमत्कुमाराभिधः ।
- सुकमा लचरिउ ३–१