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प्रस्तावना
घोड़े हिनहिना रहे हैं और हाथी चिंघाड़ रहे हैं । इस तरह युद्ध का सारा वर्णन ही सजीव है।
संसार की नश्वरता का वर्णन भी दृष्टव्य है।
'सबल राज्य तत्क्षण नष्ट हो जाता है, अत्यधिक धन से क्या किया जाय । राज्य भी धनादि से हीन, और वचे खुचे जनसमूह अत्यधिक दीनतापूर्ण वर्तन करते हुए देखे जाते हैं। सुखी बान्धव पुत्र. कलत्र, मित्र सदा किसके बने रहते हैं, जैसे उत्पन्न होते हैं वैसे ही मेघ वर्षा से जल के बुलबुलों के समान विनष्ट हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने अपने निवास स्थान को चले जाते हैं । जिस तरह पक्षी रात्रि में एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने-अपने निवास स्थान को चले जाते हैं, प्रथवा जिस प्रकार बहुत से पथिक (नदी पार करते हुए) नौका पर मिल जाते हैं, फिर अपने प्रभीष्ट स्थान को चले जाते हैं। इसी तरह इष्ट प्रियजनों का समागम थोड़े समय के लिए होता है । कभी धन प्राता और कभी दारिद्र य, स्वप्न समान भोग आते और नष्ट हो जाते हैं, फिर भी अज्ञानी जन इनका गर्व करते हैं, जिस यौबन के साथ ज़रा (बुढ़ापे) का सम्बन्ध है उससे किसको सन्तोष हो सकता है ? ७ (-संधि ६१-७)
ग्रन्थकार का जहां लौकिक वर्णन सजीव है, वहां वीर रस का शान्त रस में परिणत हो जाना भी चित्ताकर्षक है ग्रंथ पठनीय और प्रकाशन के योग्य है । इसकी प्रतियां कारंजा जयपुर और दिल्ली के पंचायती मंदिर में है, परन्तु दिल्ली की प्रति अपूर्ण है।
ग्रंथ की आद्य प्रशस्ति में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख निम्न प्रकार किया है।
कवि चक्रवर्ती धीरसेन सम्यक्त्व युक्त प्रमाण ग्रन्थ विशेष के कर्ता, देवनंदी (जैनेन्द्र व्याकरण कर्ता) वज्रसूरि प्रमाण ग्रन्थ के कर्ता, महासेन का सुलोचना ग्रन्थ, रविषेण का पद्मचरित, जिनसेन का हरिवंश पुराण, जटिल मुनि का वरांगचरित, दिनकरसेन का अनंगचरित, पद्मसेन का पार्श्वनाथ चरित अंबसेन की अमृताराधना, धनदत्त का चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरित ग्रन्थों के रचयिता विष्णुसेन, सिंहनन्दि की अनुप्रेक्षा, नरदेव का णवकार मंत्र, सिद्धसेन का भविक विनोद, रामनंदि के अनेक कथानक, जिनरक्षित (जिनपालित)-धवलादि ग्रन्थ प्रख्यापक, असग का वीरचरित, गोविन्दकवि (श्वे०) का सनत्कुमारचरित, शालिभद्र का जीवउद्योत, चतुर्मुख, द्रोण, सेढु महाकवि का पउमचरिउ, आदि विद्वानों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है। इनमें पद्मसेन (पद्मकीर्ति) और असग कवि दोनों का उल्लेख ग्रन्थ कर्ता के समय को बताने में किञ्चित् सहकारी होते हैं असग कवि का समय सं० ६१० है और पद्मसेन का समय वि० सं० ६६६ है जिससे स्पष्ट है कि धवल कवि का समय सं० ६EE से पश्चात् वर्ती है । पद्मकीर्ति की एकमात्र कृति पार्श्वनाथ पुराण उपलब्ध है। इन दोनों की रचनाओं का उल्लेख होने से प्रस्तुत धवल कवि का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का पूर्वकाल या मध्यकाल हो सकता है । यद्यपि प्रसग कवि का महावीर
१................."हणु हण मारु मारु पभणंतिहि । दलिय धरत्ति रेणुणहि धायउ, लहु पिस लुद्धउलूद्धउ पायउ ।
रहवउ रहहु गयहु गउ धाविउ, घाणुक्कहु धाणुक्कु परायउ । तुरउ तुरंग कुखग्ग विहत्यउ, असिवक्खरह लग्गुभय चत्तउ । वजहिं गहिर तूर हयहिंमहि, गुलुगुलंत गयवर बहु दोसहि ॥
-संधि ८६-१० २. देखो, हरिवंश पुराण प्रशस्ति ।