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________________ प्रस्तावना प्रशस्तियों को उपयोगिता भारतीय इतिहास के अनुसंधान में जिस तरह शिलालेख, प्रशस्तियां, दानपत्र, स्तूप, मूर्तिलेख, ताम्रपत्र और सिक्के आदि उपयोगी होते हैं। उसी तरह पुरातन ग्रन्थों के उल्लेख, ग्रन्थकर्ता विद्वानों के ग्रन्थों के आदि अन्त में दी हुई प्रशस्तियां और लिपि प्रशस्तियां भी उपयोगी होती हैं। इनमें दिए हुए ऐतिहासिक उल्लेखों से अनेक तथ्य प्रकाश में आते हैं। इनकी महत्ता भारतीय अन्वेषक विद्वानों से छिपी हुई नहीं है। ये सब चीजें भारत की प्राचीन आर्यसंस्कृति की समुज्ज्वलधारा की प्रतीक हैं और ये इतिहास की उलझी हई समस्याओं एवं गुत्थियों को सुलझाने में अमोघ अस्त्र का काम देती हैं। इनमें पूर्वजों की गुण-गरिमा का सजीव चित्रण एवं इतिवृत्त गुंफित मिलता है। ये महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रशस्तियाँ भारतीय साहित्यादि के अन्वेषण में ग्रन्थकर्ता विद्वानों, प्राचार्यों और भटारकों द्वारा लिखी गई होने से विद्वानों के समयादि का निर्णय करने में अथवा वस्तुतत्त्व की जांच करने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं और कहीं-कहीं प्रशस्तियों में अंकित इतिवृत्त उलझी हुई समस्याओं का केवल समाधान ही नहीं करते; प्रत्युत वास्तविक स्थिति को प्रकट करने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थकारों ने ग्रन्थ निर्माण कराने में प्रेरक अनेक अग्रवाल खंडेलवालादि कटूम्बों का परिचय दिया है, और उनके तीर्थयात्रा और मन्दिर निर्माण, मूर्ति निर्माण एवं बिम्ब प्रतिष्ठा, राजमंत्री. कोषाध्यक्ष, राजश्रेष्ठी आदि पदों का भी उल्लेख किया है, जिनसे उस कालके जैनियों की धार्मिक परिणति और उदारता आदि के साथ तात्कालिक सामाजिक राजनैतिक वातावरण का भी पता लग जाता है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसी से अन्वेषकों और इतिहासज्ञों के लिये इस प्रकार की ग्रन्थ प्रशस्तियाँ अत्यन्त मूल्यवान् सिद्ध हुई हैं। शिलालेखों और ताम्रपत्रादि से इनकी महत्ता किसी प्रकार कम नहीं है। प्रस्तुत प्रशस्ति संग्रह में अप्रकाशित ग्रंथों की १०६ प्रशस्तियाँ दी गई हैं परिशिष्ट नम्बर एक में छ: प्रशस्तियां मुद्रित ग्रन्थों की दी हुई हैं, और परिशिष्ट नं० दो में तीन लिपि प्रशस्तियां दी गई हैं, तथा परिशिष्ट नं. ३ में चार अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्ति दी हैं। इस तरह प्रशस्तियों की कुल संख्या एक सौ बाईस हो गई हैं। ये प्रशस्तियाँ जहां साहित्य और इतिहास की मौलिकता को प्रकट करती हैं-उसकी कड़ी जोड़ती हैं। वहाँ वे तात्कालिक सामाजिक एवं धार्मिक रीति-रिवाज पर भी अच्छा प्रकाश डालती हैं अतएव उपलब्ध अपभ्रंशसाहित्य का यह प्रशस्तियों का संग्रह विशेष लाभप्रद होगा। इनके अध्ययन एवं संकलन से इतिहास का मतिमान रूप प्रकट होता है, इतना ही नहीं; किन्तु ये जैन संस्कृति की उत्तम प्रतीक हैं। इन में उल्लिखित अन्थकर्ता, विद्वानों, प्राचार्यों, भट्टारकों, राजाओं, राजमंत्रियों, श्रावक-श्राविकाओं और उनकी गुरु परम्परा तथा संघ, गण-गच्छादिका वह परिचय भी प्राप्त हो जाता है। जिन पर से अनेक वंशों जातियों, गोत्रों और गुरुपरम्पराओं, उनके स्थान, समय, कार्यक्षेत्र तथा लोगों की ज्ञान लिप्सा के साथ-साथ
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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