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________________ प्रस्तावना सरणचरिउ नयनन्दि के 'सुदंमणचरिउ' में सतर्कता खूब बरती गई है। उसमें 'भविसयत्त कहा' और 'जिनदत्त रिउ' जैसी लौकिक तथा आश्चर्यजनक घटनाओं को स्थान नहीं दिया गया। ग्रंथ में एक व्यंतर का धाड़ी हन राजा से युद्ध करने और राजा को सुदर्शन की शरण में पहुंचाने का उल्लेख अवश्य है, जो सुदर्शन के ल और पुण्य का परिचायक है । इतने मात्र से उस पर वैसी रोमांचकता नहीं लादी जा सकती। वह खंड व्य होकर भी महाकाव्य की कोटिका ग्रन्थ है । ग्रन्थ में णमोकार मंत्र के फल का वर्णन किया है। उसमें 5 का एक मात्र ध्येय प्रात्म-विकास करना, और अभयारानी आदि की कुत्सित वृत्तियों से अपने को संरत कर तथा ब्रह्मचर्यव्रत में निष्ठ रहकर पूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्त करना रहा है । सुदर्शन के स्वभाव में अपनी विशेषता है, वह धीर, उदात्त और प्रशान्त नायक है, वह अपनी तज्ञा पर अडोल रहता है, उसे संसार का कोई भी प्रलोभन पथभ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हो सका । कंचन र कामिनी के राग से विरले ही अपने को अलग रख पाते हैं, बड़े-बड़े तपस्वी भी भ्रष्ट हो जाते हैं। कवि ने इसका मौलिक विवेचन किया है। उससे उक्त काव्य की प्रात्मा चमक उठी है। इस कारण उसे भविसयत्त कहा के समान रोमांचक काव्य नहीं कहा जा सकता। सुदर्शन ने अपने चरित की वशुद्धता से मानवता के कलंक को धो दिया है। अतएव मैं ही इसे विशुद्ध काव्य नहीं कहता; नयनन्दि स्वयं भी उसे निर्दोष काव्य माना है जैसा कि उनके निम्न पद्य से स्पष्ट है : रामो सीय-विभोय-सोय-विहुरं संपत्तु रामायणे। जादं पंडव-धायरठ सददं गोत्तं-कलीभारहे । डेडा कोलियचोररज्जुणिरदा आहासिदा सुद्दये । यो एक्कं पि सुदंसरणस्स चरिदे दोसं समुद्भासिदं ॥ उन्होंने काव्य का आदर्श व्यक्त करते हुए लिखा है कि रामायण में राम और सीता के वियोग और शोक जन्य व्याकुलता के दर्शन होते हैं, और महाभारत में पांडवों और धार्तराष्ट्रों (कौरवों) के परस्पर लह और मारकाट के दृश्य अंकित मिलते हैं तथा लोक-शास्त्र में भी कौलिक, चौर-व्याध आदि की हानियां सुनने में आती हैं किन्तु इस सुदर्शनचरित में ऐसा एक भी दोष नहीं कहा गया है। इस ग्रंथ की कथन शैली, वाक्य-विन्यास, सुन्दर सुभाषित और विविध छन्दों में वस्तु वर्णन, ठक के हृदय को आकर्षित करते ही है। डा. हरिवंश कोछड़ ने भी अपभ्रंश साहित्य में युद्ध प्रसंगादि की घटनाओं को अनावश्यक मना है। इस सब कथन पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन अपभ्रंश काव्यों के सम्बन्ध में विभिन्न सिकों द्वारा अब तक जो भी लिखा गया है वह सब एकांगी है। जैन विद्वानों का कर्तव्य है कि वे निष्पक्ष मे इस पर विचार करें और रोमांचक काव्यों की परिभाषा का विश्लेषण कर उसके औचित्यअनौर प्रकाश डालें और अपभ्रंश साहित्य की महत्ता को लोक में प्रतिष्ठित करें।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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