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________________ प्रस्तावना १२१ किया है । इसके ज्ञात होने पर या कवि की गुरु परम्परा मिलने पर ग्रन्थ कर्ता के समय का यथार्थ निश्चय हो सकता है। ८३वीं प्रशस्ति 'अणुवेक्खा दोहा' की है जिसके कर्ता कवि लक्ष्मीचन्द है । प्रस्तुत ग्रंथ में अनित्यादि बारह भावनाओं का ४७ दोहों में परिचय कराया गया है। और अन्त में उनका फल बतलाते हुए लिखा है कि- 'जो मानव व्रत-तप-शील का अनुष्ठान करते हुए निर्मल आत्मा को जानता है, वह कर्मक्षय करता हुप्रा शीघ्र ही निर्वाण का पात्र होता है। ___कवि की एक दूसरी कृति 'सावयधम्म दोहा' है जिसमें २२४ दोहा दिये हुए हैं, जिनमें श्रावकाचार का सरस वर्णन अन्य श्रावकाचारों के अनुसार ही किया गया है । किन्तु इसमें अध्यात्म की पुट है । इस कारण रचना में वैशिष्ट्य आ गया है । रचना सुन्दर और सरस है । कोई कोई दोहा चुभता हुअा-सा है । यह ग्रंथ कब बना, इसके जानने का कोई साधन नहीं है, फिर भी यह रचना पुरानी है । ग्रन्थ कर्ता लक्ष्मीचन्द किस परम्परा के थे, उनकी गुरु परम्परा क्या है ? यह कुछ ज्ञात नहीं होता। इस नाम के अनेक कवि हुए हैं। इस 'श्रावकाचार दोहा' की एक प्रति सं १५५५ में कार्तिक सुदी १५ सोमवार के दिन सरस्वती गच्छ बलात्कारगण के भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य लक्ष्मण के पठनार्थ लिखी गई है। जिससे यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि उक्त ग्रन्थ उससे बाद का नहीं हो सकता, किन्तु पूर्ववर्ती है । कितने पूर्ववर्ती है, यह विचारणीय है, संभवतः यह १५वीं शताब्दी की रचना हो, विक्रम की १६वीं शताब्दी के विद्वान ब्रह्म श्रुतसागर ने अपने टोकाग्रन्थों में इस ग्रंथ के दोहा लक्ष्मीचंद के नाम से ही उद्धृत किये हैं। इससे यह भी सुनिश्चित है कि कवि श्रुतसागर से पूर्ववर्ती हैं । कवि का समय १५ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और १६वीं का प्रारम्भ भी हो सकता है, किन्तु अभी इस सम्बंध में और भी प्रमाणों के खोजने की जरूरत है। ८४वीं प्रशस्ति 'अणुवेवखा' की है जिसके कर्ता कवि अल्हू हैं। इस ग्रन्थ में आत्मा को ऊँचा उठाने के लिए संसार और उसके स्वरूप को बतलाकर संसार की असारता का दिग्दर्शन कराते हुए जीव का पर द्रव्य से होने वाले राग को हेय बतलाया है । साथ हो, यह भी प्रकट किया है कि शरीर की अशुचिता उससे राग करने योग्य नहीं है । वह मल पूरित और दुर्गन्ध से युक्त है। इस जीव का कोई सगा साथी भी नहीं है, सभी स्वार्थ के साथी हैं, अतएव उनसे राग कम करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह जीवात्मा अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही सुख-दुःखरूप कर्मों के फलों का उपभोग करता है। मन वचन काय को चंचल प्रवृत्ति से कर्म पाते हैं। उनके बंधन से प्रात्मा परतन्त्रता का अनुभव करता है अतएव प्रास्त्रव और बंध के कारणों का परित्याग करना ही श्रेयकर है । साथ ही अपनी इच्छाओं का संवरण करते हुए फल की अनिच्छा पूर्वक तपश्चरण द्वारा कर्म की निर्जरा करना चाहिए, और दुर्लभ रत्नत्रय रूप बोधि को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस तरह अनित्यादि बारह भावनाओं का चिन्तन करते हुए आत्मा को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करना आवश्यक है। कवि ने रचना में अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न गुरु परम्परा ही दी है, जिससे समय निर्णय किया जा सके । फिर भी यह रचना भाषा साहित्यादि पर से १५वीं-१६वीं शताब्दी की जान पड़ती है। २. 'स्वस्ति संवत् १५५५ वर्षे कातिक सुदी १५ सोमे श्री मूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे भट्टारक श्री विद्यानन्दि तत्पट्टे भट्टारक मल्लिभूषण तच्छिष्य पंडित लक्ष्मण पठनार्य दूहा भावकाचार शास्त्रं समाप्तं । -राजस्थान ग्रंथ-सूची भा० ४ पृ० ५२ ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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