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जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह
८५वीं-८६वीं और १०७वीं प्रशस्तियाँ क्रमशः हरिवंशपुराण, परमेष्ठी प्रकाशसार धौर योगसार की हैं, जिनके कर्ता कवि श्रुतकीर्ति हैं ।
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पहली कृति 'हरिवंश पुराण' है जिसमें ४७ सन्धियों द्वारा जैनियों के २२वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के जीवन-परिचय को अंकित किया गया है। प्रसंगवश उसमें श्रीकृष्ण आदि यदुवंशियों का संक्षिप्त जीवन चरित्र भी दिया हुआ है। इस ग्रन्थ की दो प्रतियाँ अब तक उपलब्ध हुई हैं। एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन धारा में है, और दूसरी आमेर के भट्टारक महेन्द्रकीर्ति के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है, जो संवत् १६०७ की लिखी हुई है । और जिसका रचनकाल संवत् १५५२ है । इसकी लिपि - प्रशस्ति भी परिशिष्ट में दे दी गई है । श्रारा की वह प्रति सं० १५५३ की लिखी हुई और जिसमें ग्रन्थ के पूरा होने का निर्देश है जो मंडपाचल (मांडू) दुर्ग के सुलतान ग्यासुद्दीन के राज्य काल में दमोवादेश के जेरहट नगर के महाखान और भोजखान के समय लिखी गई है। ये महाखान, भोजखान जेरहट नगर के सूबेदार जान पड़ते हैं। वर्तमान में जेरहट नाम का एक नगर दमोह के अन्तर्गत है यह दमोह पहले जिला रह चुका है। बहुत सम्भव है कि यह दमोह उस समय मालवराज्य में शामिल हो । और यह भी हो सकता है कि मांडवगढ़ के समीप ही कोई जेरहट नाम का नगर रहा हो, पर उसकी संभावना कम ही जान पड़ती है। क्योंकि प्रशस्ति में दमोवा देश का उल्लेख स्पष्ट है ।
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८६वीं प्रशस्ति 'परमेष्ठो प्रकाश सार' की है, इसकी एकमात्र प्रति आमेर ज्ञान भंडार में ही उपलब्ध हुई है। जिसमें आदि के दो पत्र और अन्तिम पत्र नहीं है । पत्र संख्या २८८ हैं ग्रंथ में ७ परिच्छेद या अध्याय हैं, जो तीन हजार श्लोक प्रमाण को लिये हुए हैं । ग्रन्थ का प्रमुख विषय धर्मोपदेश है । इसमें सृष्टि और जीवादि तत्त्वों का सुन्दर विवेचन कडवक और घत्ता शैली में किया गया है । कवि ने इस ग्रन्थ को भी उक्त मांडवगढ़ के जेरहट नगर के प्रसिद्ध नेमीश्वर जिनालय में की है। उस समय वहाँ ग्यासुद्दीन का राज्य था और उसका पुत्र नसीरशाह राज्य कार्य में अनुराग रखता था । पुंजराज नाम के एक वरिणक उसके मन्त्री थे । ईश्वरदास नाम के सज्जन उस समय प्रसिद्ध थे। जिनके पास विदेशों से वस्त्राभूषरण प्रते थे। जयसिंह, संघवी शंकर, तथा संघपति नेमिदास उक्त अर्थ के ज्ञायक थे । अन्य साधर्मी भाइयों ने भी इसकी अनुमोदना की थी और हरिवंशपुराणादि ग्रन्थों की प्रतिलिपियां कराई थी । प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम सं० १५५३ की श्रावण महीने की पंचमी गुरुवार के दिन समाप्त हुआ था ।
एकसी सात (१०७) वीं प्रशस्ति 'जोगसार' की है। प्रस्तुत ग्रन्थ दो परिच्छेदों या संधियों में विभक्त है, जिनमें गृहस्थोपयोगी प्रचार सम्बन्धी सैद्धान्तिक बातों पर प्रकाश डाला गया है। साथ में कुछ मुनिचर्या श्रादि के विषय में भी लिखा गया है ।
ग्रन्थ के अन्तिम भाग में भगवान महावीर के बाद के कुछ प्राचार्यों की गुरु परम्परा के उल्लेख के साथ कुछ ग्रंथकारों की रचनाओं का भी उल्लेख किया गया है, और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि
१. संवत् १५५३ वर्षे क्वारवादि द्वज सुदि ( द्वितीया ) गुरी दिने प्रद्येह श्री मण्डपाचल गढ़दुर्गे सुलतान गयासुद्दीन राज्ये प्रवर्तमाने श्री दमोवादेशे महाखान भोजखान वर्तमाने जेरहट स्थाने सोनी श्री ईसुर प्रवर्तमाने श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीपद्मनन्दिदेव तस्य शिष्य मंडलाचार्य देविन्दकीर्तिदेव तच्छिष्य मंडलाचार्य श्री त्रिभुवनकीर्ति देवान् तस्य शिष्य श्रुतकीर्ति हरिवंश पुराणे परिपूर्ण कृतम् ''" प्राराप्रति