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________________ प्रस्तावना भट्टारक श्रुतकीर्ति इतिहास से प्रायः अनिभिज्ञ थे और उसे जानने का उन्हें कोई साधन भी उपलब्ध न था, जितना कि आज उपलब्ध है। दिगम्बर-श्वेताम्बर संघ भेद के साथ आपुलीय (यापनीय) संघ भिल्ल और नि:पिच्छक संघ का नामोल्लेख किया गया है। और उज्जैनी में भद्रबाहु से सम्राट चन्द्रगुप्त की दीक्षा लेने का भी उल्लेख है। ग्रंथकार संकीर्ण मनोवृत्ति को लिये हुए था, वह जैनधर्म की उस उदार परिणति से भी अनभिज्ञ था। इसीसे उन्होंने लिखा है कि 'जो प्राचार्य शूद्र पुत्र और नौकर वगैरह को व्रत देता है वह निगोद में जाता है और वह अनन्तकाल तक दुःख भोगता है'।' प्रस्तुत ग्रन्थ सं० १५५२ में मार्गशिर महीने के शुक्ल पक्ष में रचा गया है। कवि की इन तीन कृतियों के अतिरिक्त 'धम्मपरिवखा' नाम की एक चौथी कृति भी है जो अपूर्ण रूप में डा. हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट् को प्राप्त हुई है। जिसका परिचय उन्होंने अनेकान्त वर्ष ११ किरण २ में दिया है। जिससे स्पष्ट है कि उक्त धर्मपरीक्षा में १७६ कडवक हैं और जिसे कवि ने सं० १५५२ में बनाकर समाप्त किया था। इन चारों रचनाओं के अतिरिक्त आपकी अन्य क्या रचनाएँ हैं वे अन्वेषणीय हैं। कवि परिचय भट्टारक श्रुतकीर्ति नन्दीसंघ बलात्कारगरण और सरस्वतीगच्छ के विद्वान थे। यह भट्टारक देवेन्द्रकीति के प्रशिष्य और त्रिभुवनकीति के शिष्य थे। ग्रंथकर्ता ने भ० देवेन्द्रकीर्ति को मृदुभाषी और अपने गुरु त्रिभुवनकीर्ति को अमृतवाणी रूप सद्गुणों के धारक बतलाया है । श्रुतकीर्ति ने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपने को अल्प बुद्धि बतलाया है। कवि की उक्त सभी रचनाएँ वि० सं० १५५२ और १५५३ में रची गई हैं। और वे सब रचनाएँ मांडवगढ़ (वर्तमान मांडू) के सुलतान ग्यासुद्दीन के राज्य में दमोवा देश के जेरहट नगर के नेमिनाथ मंदिर में रची गई हैं। इतिहास से प्रकट है कि सन् १४०६ में मालवा के सूबेदार दिलावर खाँ को उसके पुत्र अलफ खां ने विष देकर मार डाला था, और मालवा को स्वतन्त्र उद्घोषित कर स्वयं राजा बन बैठा था। उसकी उपाधि हुशंगसाह थी। इसने मांडवगढ़ को खूब मजबूत बनाकर उसे ही अपनी राजधानी बनाई थी। उसी के वंश में ग्यासुद्दीन हुआ, जिसने मांडवगढ़ से मालवा का राज्य सं० १५२६ से १५५७ अर्थात् सन् १४६९ से १५०० ईस्वी तक किया है। इसके पुत्र का नाम नसीरशाह था, और इसके मंत्री का नाम पुंजराज था, जो जैनधर्म का प्रति पालक था। ___८७वीं प्रशस्ति 'संतिणाह चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि महिन्दु या महाचन्द्र हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में १३ परिच्छेद हैं जिनकी आनुमानिक श्लोक संख्या पाँच हजार के लगभग है, जिनमें जैनियों के १६वें तीर्थकर शान्तिनाथ चक्रवर्ती का चरित्र दिया हुआ है । जो चक्रवर्ती, कामदेव और धर्मचक्री थे। जिन्होंने चक्रवर्ती के अनेक उत्तमोत्तम भोग भोगे। और अन्त में इन्द्रिय-विषयों को दुखद जान देह-भोगों से विरक्त हो दिगम्बर दीक्षा धागा कर तपश्चरण किया, और समाधिरूप चक्र से कर्म-शत्रुनों को विनष्ट कर धर्मचक्री बनें। विविध देशों में विहार कर जगत को कल्याण का मार्ग बतलाया। पश्चात् अवशिष्ट प्रघाति कर्म का १. मह जो सूरि देह वउ णिच्चहं, णीच-सूद-सुय-दासी-भिच्चहं । जाम णिोयमसुह मणु हुज्जई, प्रमियकाल तहं घोर-दुह मुंजइ ॥ -योगसार पत्र ६५ २. See Combridge shorter History of India. P. ३०६.
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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