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________________ प्रस्तावना ८१ कवि ने अपना सभी कथन काव्य-शैली से किया है, किन्तु साध्य - चरित भाग को सरल शब्दों में रखने का प्रयत्न किया गया है। इसमें विविध छन्दों की भरमार नहीं है । कवि ने इस ग्रन्थ को 'हुंबड' कुलभूषण कुमरसिंह के सुपुत्र सिद्धपाल के अनुरोध से बनाया था, वे उन्मत्त ग्राम के निवासी थे । अतएव ग्रन्थ सिद्धपाल के ही नामांकित किया गया है। समय विचार ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्य में रचनाकाल नहीं दिया; किन्तु श्राद्य प्रशस्ति में निम्न विद्वानों का उल्लेख मात्र किया है। साथ ही, प्राचार्य समन्तभद्र के मुनि जीवन के समय घटने वाली और आठवें तीर्थंकर के स्तोत्र की सामर्थ्य से चन्द्रप्रभ की मूर्ति के प्रकट होने की घटना का उल्लेख करते हुए अकलंक, पूज्यपाद, जिनसेन और सिद्धसेन नाम के अपने से पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख किया है। जिससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि प्रस्तुत ग्रंथ भट्टारक गुणकीर्ति के शिष्य यश कीर्ति की कृति नहीं है । ग्रन्थका भाषा साहित्य भी पाण्डवपुराण के कर्ता यश: कीर्ति से गम्भीर प्रौढ़ और प्रभावक है । कुछ विद्वान इसे उक्त यशः कीर्ति को और पाण्डवपुराण के कर्ता यशः कीर्ति, दोनों को एक बतलाते हैं, परन्तु वे इसका कोई प्रमाण नहीं देते हैं । साथ ही, दोनों ग्रन्थों की सन्धि - पुष्पिकात्रों में भी भारी अन्तर है। भट्टारक यशः कीर्ति अपने प्रत्येक ग्रन्थ की सन्धि- पुष्पिका में 'सिरि गुणकीर्ति सिस्स मुरिण जसकित्ति विरइए' वाक्य के साथ उल्लेख़ित करते हैं, जिससे स्पष्ट है कि उक्त कृति भ० गुणकीर्ति के शिष्य यशः कीर्ति की रची हुई है। किंतु चन्द्रप्रभ चरित्र के कर्ता ने अपने ग्रन्थ की किसी भी संधि में गुरणकीति के शिष्य यशः कीर्ति का कोई उल्लेख नहीं किया है। जिससे प्रस्तुत यशःकीर्ति पाण्डवपुराणादि के कर्ता भ० यशः कीर्ति से भिन्न हो जाते हैं । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न संधि वाक्य से प्रकट है : "इय सिरि चंदप्पहचरिए महाकव्वे महाकइ जसकित्ति विरइए महाभव्व सिद्धपाल सवरणभूसणे चंदप्पहसामिरिणव्वारण गमरण वण्णरोगाम एया रहमो- संधी परिच्छेउ समत्तो ।” गुणकीर्ति के शिष्य यशः कीर्ति ने कहीं भी अपने को महाकवि सूचित नहीं किया है; किन्तु चन्द्रप्रभु चरित के कर्त्ता ने अपने को 'कहाकवि' भी प्रकट किया है। अतः ऊपर के इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता इनसे भिन्न और पूर्ववर्ती हैं। इनका समय सम्भवतः ११वीं - १२वीं शताब्दी ज्ञात होता है । ग्रंथ अभी अप्रकाशित है और उसे प्रकाश में लाने की आवश्यकता है । 1 २१वीं, २२वीं, २३वीं और २४वीं प्रशस्तियाँ क्रम से 'पाण्डवपुराण' हरिवंश पुराण, निरात्रिकहा, और रविवउकथा की हैं। जिनके कर्त्ता भ० यशः कीर्ति हैं । पाण्डवपुराण में ३४ संधियां हैं जिनमें भगवान् नेमिनाथ की जीवन-गाथा के साथ युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव, और कौरवों के परिचय से युक्त कौरवों से होने वाले युद्ध में विजय, नेमिनाथ, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की तपश्चर्या तथा निर्वारण प्राप्ति, नकुल, सहदेव का सर्वार्थसिद्धि प्राप्त करना और वलदेव का पूवें स्वर्ग में जाने का उल्लेख किया है । कवि यशः कीर्ति विहार करते हुए नवगांव नाम के नगर में आए, जो दिल्ली के निकट था, वहां उन्होंने इसकी रचना वि० सं० १४६७ में समाप्त की है। ग्रंथ में नारी का वर्णन परम्परागत उपमानों से अलंकृत है, किन्तु शारीरिक सौंदर्य का अच्छा वर्णन किया गया है—' जाहे गियंतिहे रइवि उक्खिज्जइ' - जिसे देखकर रति भी खीज उठती है। इतना ही नहीं किन्तु उसके सौंदर्य से इन्द्राणी भी खिन्न हो जाती है - 'लायों वासवपिय जूरइ' कवि ने जहां शरीर के
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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