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जन पंच प्रशस्ति संग्रह
से युक्त थे। यह कवि धनपाल के पितामह थे, इनके पुत्र 'सुहडप्रभ' श्रेष्ठी थे, जो धनपाल के पिता थे। कवि की माता का नाम 'सुहडा देवी' था इनके दो भाई और भी थे, जिनका नाम संतोष और हरिराज था। इनके गुरु प्रभाचंद्र थे, जो अपने बहुत से शिष्यों के साथ देशाटन करते हुए उसी पल्हणपुर में आये थे, धनपाल ने उन्हें प्रणाम किया, और मुनि ने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रसाद से विचक्षण होगे। मस्तक पर हाथ रखकर बोले कि मैं तुम्हें मंत्र देता हूँ। तुम मेरे मुख से निकले हुए अक्षरों को याद करो। आचार्य प्रभाचंद्र के वचन सुनकर धनपाल का मन प्रानन्दित हुआ, और उसने विनय से उनके चरणों की वन्दना की, और पालस्य रहित होकर गुरु के प्रागे शास्त्राभ्यास किया, और सुकवित्व भी पा लिया। पश्चात् प्रभाचंद्र गणी खंभात धारनगर और देवगिरि (दौलताबाद) होते हुए योगिनी पुर आये। देहली निवासियों ने उस समय एक महोत्सव किया और भट्टारक रत्नकीति के पट्ट पर उन्हें प्रतिष्ठित किया। भट्टारक प्रभाचंद्र ने मुहम्मदशाह तुगलक के मन को अनुरंजित किया था और विद्या द्वारा वादियों का मनोरथ भग्न किया था' । मुहम्मदशाह ने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है।
भट्टारक प्रभाचंद्र का भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समर्थन भगवती आराधना की पंजिका टीका की उस लेखक प्रशस्ति से भी होता है जिसे संवत् १४१६ में इन्हीं प्रभाचंद्र के शिष्य ब्रह्मनाथूराम ने अपने पढ़ने के लिए दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुगलग के शासनकाल में लिखवाया था, उसमें भ० रत्नकीर्ति के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का स्पष्ट उल्लेख है। फीरोजशाह तुगलक ने सं० १४०८ से १४४५ तक राज्य किया है। इससे स्पष्ट है कि भ०प्रभाचंद्र सं० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित हुये थे और सकल उपमाओं से युक्त थे।।
कविवर धनपाल गुरु आज्ञा से सौरिपुर तीर्थ के प्रसिद्ध भगवान नेमिनाथ जिनकी वन्दना करने के लिये गए थे। मार्ग में इन्होंने चन्द्रवाड' नाम का नगर देखा, जो जन धन से परिपूर्ण और उतुंग जिनालयों से विभूषित था, वहां साहु वासाधर का बनवाया हुआ जिनालय भी देखा और वहां के श्री अरहनाथ जिनकी वन्दना कर अपनी गर्दा तथा निंदा की और अपने जन्म-जरा और मरण का नाश होने की कामना व्यक्त की। इस नगर में कितने ही ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं जिन्होंने जैनधर्म का अनुष्ठान करते हुए वहां के राज्य मंत्री रह कर प्रजा का पालन किया है। कवि का समय पन्द्रहवीं शताब्दी है।
२०वीं प्रशस्ति (चंदप्पहचरिउ) नाम के ग्रन्थ की है, जिनके कर्ता कवि यशःकीर्ति हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में ग्यारह संधियाँ हैं जिनमें जैनियों के आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ का जीवन परिचय अंकित किया गया है । ग्रन्थ का चरित भाग उड़ा ही सुन्दर और प्रांजल है। इसका अध्ययन करने से जैन तीर्थंकर की आत्म-साधना की रूपरेखा का जहां परिज्ञान होता है वहां प्रात्म-साधना के सुन्दर उपाय की भी जानकारी हो जाती है।
१. तहिं भवहिं सुमहोच्छव विहियउ, सिरि रयणकित्ति पटें णिहिउ। महमंदसाहि मणुरंजियउ, विज्जहिं वाइय मणु भंजियउ ।
-बाहुबलि चरिउ प्रशस्ति २. संवत् १४१६ वर्षे चैत्र सुदि पञ्चम्यां सोमवासरे सकलराज शिरोमुकुटमाणिक्यमरीचिपिंजरीकृत चरण
कमल पादपीठस्य श्रीपेरोजसाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविभ्राणस्य समये श्री दिल्यां श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे भट्टारक श्री रलकीति देव पट्टोदयाद्रितरुणतरणित्वमुर्वीकुर्वाणंरणः (गः) भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेव शिष्याणां ब्रह्मनाथूराम । इत्याराधना पंजिकायां ग्रंथ प्रात्म पठनार्थ लिखापितम् ।
-प्रारा. पंजि. प्रश०व्यावर भवन प्र० ३. देखो, चन्द्रवाट का इतिहास नाम का मेरा लेख, मनेकान्त वर्ष ८। :