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________________ १२ जैनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह बाह्य सौंदर्य का कथन किया है वहां उसके अन्तर प्रभाव की भी सूचना की है । छन्दों में पद्धडिया के अतिरिक्त आरणाल, दुवई, खंडय, हेला, जंभोट्टिया, रचिता, मलयविलासिया, पावली, चतुष्पदी, सुन्दरी, वंशस्थ, गाहा, दोहा और वस्तु छन्द का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं भाषा में अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। कवि ने यह ग्रन्थ शाह हेमराज के अनरोध से बनाया है जो दिल्ली के बादशाह मुबारिक शाह के मंत्री थे । इन्होंने दिल्ली में एक चैत्यालय भी बनवाया था, जिसकी प्रतिष्ठा सं० १४६७ से पूर्व हो चुकी थी; क्योंकि सं० १४६७ में निर्मित ग्रंथ में उसका उल्लेख किया है। ग्रंथ की संधियों के संस्कृत पद्यों में ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक हेमराज की मंगल कामना की गई है और यह ग्रन्य उन्हीं के नामांकित किया गया है । ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में हेमराज के परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुआ है । __ २२वीं प्रशस्ति 'हरिवंशपुराण' की है जिसमें १३ संधियां और २६७ कडवक हैं जो चार हजार श्लोकों के प्रमाण को लिए हुए हैं। इनमें कवि ने भगवान् नेमिनाथ और उनके समय में होने वाले कौरव पाण्डव युद्ध और विजय का संक्षिप्त परिचय दिया गया है अर्थात् महाभारत कालीन जैन मान्यता सम्मत पौराणिक आख्यान दिया हुआ है । ग्रन्थ में काव्यमय अनेक स्थल अलंकृत शैली से वरिणत हैं। उसमें नारी के बाह्य रूप का ही चित्रण नहीं किया गया, किन्तु उसके हृदय-स्पर्शी प्रभाव को भी अङ्कित किया है । कवि ने ग्रंथ को यद्यपि पद्धडिया छन्द में रचने की घोषणा की है, किन्तु प्रारणाल, दुवई, खंडय, जंभोटिया, वस्तुबंध और हेला आदि छन्दों का भी प्रयोग यत्र-तत्र किया गया है । ऐतिहासिक कथनों की प्रधानता है, परंतु सभी वर्णन सामान्य कोटि के हैं उनमें तीव्रता की अभिव्यक्ति नहीं है। यह ग्रन्थ हिसार निवासी अग्रवाल वंशी गर्गगोत्री साहु दिवढा के अनुरोध से बनाया गया था, साहु दिवड्डा परमेष्ठी आराधक, इन्द्रिय-विषयविरक्त, सप्तव्यसनरहित, अष्टमूलगुरागधारक तत्त्वार्थश्रद्धानी, अष्ट अंग परिपालक, ग्यारह प्रतिमा पागधक, और बारहव्रतों का अनुष्ठापक था, उसके दान-मान की कवि यश.कीर्ति ने खूब प्रशंसा की है। उसी के अनुरोधवश यह ग्रन्थ वि० सं० १५०० में भाद्रपद शुक्ला एकादशी के दिन 'इंदउरि' इन्द्रपुर या इन्द्रपुरी (दिल्ली) में जलालखां के राज्य में समाप्त हुया है। ___ २३वीं प्रशस्ति 'जिनरात्रिकथा' की है, जिसमें शिवरात्रि कथा की तरह भगवान महावीर ने जिस रात्रि में अवशिष्ट अघाति कर्म का विनाश कर पावापुर से मुक्ति पद प्राप्त किया था उसी का वर्णन प्रस्तुत कथा में किया गया है । उस दिन और रात्रि में व्रत करना, तथा तदनुसार प्राचार का पालन करते हुए प्रात्म-साधना द्वारा प्रात्म-शोधन करना कवि की रचना का प्रमुख उद्देश्य है। २४वीं प्रशस्ति रविव्रत कथा की है, जिसमें रविवार के व्रत से लाभ और हानि का वर्णन करते हए, रविव्रत के अनुष्ठापक और उसकी निन्दा करने वाले दोनों व्यक्तियों की अच्छी बुरी परिणतियों से निष्पन्न फल का निर्देश करते हुए व्रत की सार्थकता, और उसकी विधि आदि का सुन्दर विवेचन किया गया है। १. झं झणण झणण झल्लरि वि सह,टं टं करंत करि वीर बंट ! कंसाल ताल सद्दइ करंति, मिहुणइं इव विडिवि पुण मितंति । डम डम डम डमरू सद्दियाई, बहु ढोल निसाणई वज्जियाई । २. जेण करावउ जिण-चेयालउ, पुण्णहेउ चिर-रय-पक्खालिउ । धय-तोरण-कलसेहिं प्रलंकिउ, जसु गुरुत्ति हरिजणु वि संकिउ । ३. दाणेण जासु कित्ती पर उवयारसु संपया जस्स । णिय पुत्त कलत्त सहिउ णंदउ दिवढाख्य इह भुवणे ॥ -हरिवंश पुराण प्रथम संधि
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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