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जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह पड़ता है कि वे गृहस्थ-पंडित थे और उस समय वे प्रतिष्ठित विद्वान् गिने जाते थे। ग्रन्थ-प्रणयन में जो भेंटस्वरूप धन या वस्त्राभूषण प्राप्त होते थे, वही उनकी आजीविका का प्रधान आधार था।
बलभद्रचरित्र (पद्मपुराण) की अन्तिम प्रशस्ति के १७वें कडवक के निम्न वाक्यों से मालूम होता है कि उक्त कविवर के दो भाई और भी थे, जिनका नाम बाहोल और माहणसिंह था। जैसा कि उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है
सिरिपोमावइपुरवालवंसु, णंदउ हरिसिंघु संघवी जासुसंसु घत्ता-बाहोल माहणसिंह चिरु गंदउ, इह रइधूकवि तीयउ वि धरा । मोलिक्य समाणउ कलगुण जाणउ णंदउ महियलि सो वि परा ।।
यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता है कि मेघेश्वर चरित (आदिपुराण) की संवत् १८५१ की लिखी हुई एक प्रति नजीबाबाद जिला बिजनौर के शास्त्र-भण्डार में है जो बहुत ही अशुद्ध रूप से लिखी गई है जिसके कर्ता ने अपने को प्राचार्य सिंहसेन लिखा है और उन्होंने अपने को संघवीय हरिसिंह का पुत्र भी बतलाया है। सिंहसेन के आदिपुराण के उस उल्लेख पर से ही पं० नाथूरामजी प्रेमी ने दशलक्षण जयमाला की प्रस्तावना में कवि रइधू का परिचय कराते हुए फुटनोट में श्री पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार की रइधू को सिंहसेन का बड़ा भाई मानने की कल्पना को असंगत ठहराते हुए रइध् और सिंहसेन को एक ही व्यक्ति होने की कल्पना की है। परन्तु प्रेमीजी की भी यह कल्पना संगत नहीं है और न रइधू सिंहसेन का बड़ा भाई ही है किन्तु रइधू और सिंहसेन दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, सिंहसेन ने अपने को 'आइरिय' प्रकट किया है जबकि रइधू ने अपने को पण्डित और कवि हो सूचित किया है। उस आदिपुराण की प्रति को देखने और दुसरी प्रतियों के साथ मिलान करने से यह सुनिश्चित जान पड़ता है कि उसके कर्ता कवि रइधू ही हैं, सारे ग्रन्थ के केवल आदि अन्त प्रशस्ति में ही कुछ परिवर्तन है ।
शेष ग्रन्थ का कथा भाग ज्यों का त्यों है उसमें कोई अन्तर नहीं, ऐसी स्थिति में उक्त आदिपुराण के कर्ता रइबू कवि ही प्रतीत होते हैं, सिंहसेन नहीं। हां, यह हो सकता है कि सिंहसेनाचार्य का कोई दूसरा ही ग्रन्थ रहा हो, पर उक्त ग्रन्थ 'सिंहसेनायरिय' का नहीं किन्तु रइधू कविकृत ही है। सम्मइजिनचरिउ की प्रशस्ति में रइधू ने सिंहसेन नाम के एक मुनि का और भी उल्लेख किया है और उन्हें गुरु भी बतलाया और उन्हीं के वचन से सम्मइजिनचरिउ की रचना की गई है। घत्ता
"तं णिसुणि वि गुरुणा गच्छहु गुरुणाइं सिंहसेण मुणे।
पुरुसंठिउ पंडिउ सील अखंडिउ भरिणउ तेण तं तम्मि खरिण ।।५।। गुरु परम्परा
कविवर ने अपने ग्रंथों में अपने गुरु का कोई परिचय नहीं दिया है और न उनका स्मरण ही किया है। हां, उनके ग्रन्थों में तात्कालिक कुछ भट्टारकों के नाम अवश्य पाये जाते हैं जिनका उन्होंने
आदर के साथ उल्लेख किया है। पद्मपुराण की प्राद्य प्रशस्ति के चतुर्थ कडवक की निम्न पंक्तियो में, उक्त ग्रन्थ के निर्माण में प्रेरक साहु हरसी द्वारा जो वाक्य कवि रइधू के प्रति कहे गए हैं उनमें रइधू को 'श्रीपाल ब्रह्म प्राचार्य के शिष्य रूप से सम्बोधित किया गया है। साथ ही साह सोढल के निमित्त नेमिपुराण' के रचे जाने और अपने लिए रामचरित के कहने की प्रेरणा भी की गई है जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि रइधू के गुरु ब्रह्म श्रीपाल थे वे वाक्य इस प्रकार हैं :