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________________ प्रस्तावना १०५ श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमी ने 'परवारजाति के इतिहास पर प्रकाश' नाम के अपने लेख में परवारों के साथ पद्मावती पुरवालों का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया था' और पं० बखतराम के 'बुद्धिविलास' के अनुसार सातवां भेद भी प्रकट किया है। हो सकता है कि इस जाति का कोई सम्बन्ध परवारों के साथ भी रहा हो, किन्तु पद्मावती पुरवालों का निकास परवारों के सत्तम मूर पद्मावतिया से हुआ हो, यह कल्पना ठीक नहीं जान पड़ती और न किन्हीं प्राचीन प्रमाणों से उसका समर्थन ही होता है और न सभी 'पुरवाडवंश' परवार ही कहे जा सकते हैं। क्योंकि पद्मावती पुरवालों का निकास पद्मावती नगरी के नाम पर हुआ है परवारों के सत्तममूर से नहीं । आज भी जो लोग कलकत्ता और देहली आदि से दूसरे शहरों में चले जाते हैं उन्हें कलकतिया या कलकत्ते वाला देहलवी या दिल्ली वाला कहा जाता है, ठीक उसी तरह परवारों के सत्तममूर 'पद्मावतिया' की स्थिति है । ____ गांव के नाम पर से गोत्र कल्पना कैसे की जाती थी इसका एक उदाहरण पं० बनारसीदासजी के अर्धकथानक से ज्ञात होता है और वह इस प्रकार है-मध्यप्रदेश के रोहतकपुर के निकट 'विहोलो' नाम का एक गांव था उसमें राजवंशी राजपूत रहते थे; वे गुरु प्रसाद से जैनी हो गये और उन्होंने अपना पापमय क्रिया-काण्ड छोड़ दिया। उन्होंने णमोकार मन्त्र की माला पहनी उनका कुल श्रीमाल कहलाया और गोत्र बिहोलिया रक्खा गया। जैसा कि उसके निम्न पद्यों से प्रकट है याही भरत सुखेत में, मध्यदेश शुभ ठांउ । वसे नगर रोहतगपुर, निकट बिहोली-गांउ ॥ ८ गांउ बिहोली में बसै, राजवंश रजपूत । ते गुरुमुख जैनी भए, त्यागि करम अघ-भूत ।। ६ पहिरी माला मंत्र की पायो कुल थीमाल । थाप्यो गोत्र बहोलिया, बीहोली रखपाल ।। १० ॥ इसी तरह से उपजातियों और उनके गोत्रादि का निर्माण हुआ है। कविवर ग्इधू भट्टारकीय पं० थे, और तात्कालिक भट्टारकों को वे अपना गुरु मानते थे और भट्टारकों के साथ उनका इधर-उधर प्रवास भी हुआ हैं और उन्होंने कुछ स्थानों में कुछ समय ठहरकर कई ग्रंथों की रचना भी की है, ऐसा उनकी ग्रंथ-प्रशस्तियों पर से जाना जाता है । वे प्रतिष्ठा वार्य भी थे और उन्होंने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी कराई थी। उनके द्वारा प्रतिष्ठित एक मूर्ति का मूर्तिलेख आज भी प्राप्त है और जिससे यह मालूम होता है कि उन्होंने उसकी प्रतिष्ठा सं० १४६७ में ग्वालियर के शासक राजा डूंगरसिंह के राज्य में कराई थी, वह मूर्ति आदिनाथ की है।' कविवर विवाहित थे या अविवाहित, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया और न कवि ने कहीं अपने को बालब्रह्मचारी ही प्रकट किया है इससे तो वे विवाहित मालूम होते हैं और जान १. देखो, अनेकान्त वर्ष ३ किरण ७ २. सात खांप परवार कहावं, तिनके तुमको नाम सुनावें । __ अठसक्खा पुनि हैं चौसक्खा, ते सक्खा पुनि हैं दोसक्खा । सोरठिया अरु गांगज जानो, पद्मावतिया सत्तम मानो। -बुद्धिविलास ३. देखो, ग्वालियर गजिटियर जि. १, तथा अनेकान्त वर्ष १०
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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