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________________ १३४ जैन अन्य प्राति संग्रह भी प्रचलित हैं। कवि ने यह ग्रन्थ क्रोधन संवत्सर की प्राषाढ़ शुक्ला दशमी के दिन शक संवत् १८७ वि. सं० १०२२ ) में समाप्त किया है और राष्ट्र कूट वंश के अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीय के महामात्य भरत के अनुरोध से बना है । ग्रन्थ की सन्धि पुष्पकाओं में स्वतन्त्र संस्कृत पद्यों में भरत की प्रशंसा और मंगलकामना की गई है । इस ग्रन्थ का सम्पादन डा० पी० एल० वैद्य ने किया है, जो मणिकचन्द ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है। ११३वीं प्रशस्ति 'नागकुमारचरित' की है। यह एक छोटा-सा खंड-काव्य है। जिसमें पंचमीव्रत के फल को व्यक्त करने वाला एक सुन्दर कथानक दिया हुआ है, ग्रन्थ में ७ संधियों द्वारा नागकुमार के चरित्र का अच्छा चित्रण किया गया है । रचना बड़ी सुन्दर, सरस और चित्ताकर्षक है ग्रन्थ में तात्कालिक सामाजिक परिस्थिति का भी वर्णन है । इस ग्रन्थ की रचना भरत मंत्री के पुत्र नन्नकी प्रेरणा से हुई है और और इसीलिए यह ग्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया गया है । इस ग्रन्थ का सम्पादन डा० हीरालाल जी एम. ए. अमरावती ने किया है और वह कारंजा सीरीज से प्रकाशित हो चुका है। ११४वीं प्रशस्ति 'जसहरचरिउ' की है । यह भी एक खंड काव्य है, जिसकी चार सन्धियों में राजा यशोधर और उनकी माता चन्द्रमती का कथानक दिया हुआ है। जो बड़ा ही सुन्दर और हृदय-द्रावक है और उसे कवि ने चित्रित कर कण्ठ का भूषण बना दिया है। राजा यशोधर का यह चरित इतना लोकप्रिय रहा है कि उस पर अनेक विद्वानों ने संस्कृत और अपभ्रंश में अनेक ग्रंथ लिखे हैं। सोमदेव, वादिराज, वासवसेन, सकलकीर्ति, श्रुतसागर, पद्मनाभ, माणिक्यदेव, पूर्णदेव कविरइधू, सोमकीर्ति, विश्वभूषण और क्षमा कल्याण आदि अनेक दिगम्बर, श्वेताम्बर विद्वानों ने अनेक ग्रंथ लिखे हैं। इस ग्रन्थ में सं० १३६५ में कुछ कयन, राउल और कौल का प्रसंग, विवाह और भवांतर पानीपत के वीसलसाहु के अनुरोध से कन्हड के पुत्र गन्धर्व ने बनाकर शामिल किया था। वह प्रतियों में अब भी पाया जाता है। कवि परिचय महाकवि पुष्पदन्त अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान कवि थे। इनके पिता का नाम केशवभट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था। यह कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनका शरीर अत्यन्त कृश (दुबला-पतला) और वर्ण सांवला था। यह पहले शैव मतानुयायी थे। परन्तु बाद में किसी दिगम्बर विद्वान् के सानिध्य से जैनधर्म का पालन करने लगे थे। वे जैनधर्म के बड़े श्रद्धालु और अपनी काव्य-कला से भव्यों के चित्त को अनुरंजित एवं मुग्ध करने वाले थे, तथा प्राकृत, संस्कृत, और अपभ्रंश भाषा के महा पंडित थे। इनका अपभ्रंश भाषा पर असाधारण अधिकार था, उनकी कृतियां उनके विशिष्ट विद्वान् होने की स्पष्ट सूचना करती हैं । कविवर बड़े ही स्वाभिमानी और उग्र प्रकृति के धारक थे, इस कारण वे 'अभिमानमेरु' कहलाते थे । अभिमानमेरु, अभिमानचिह्न, काव्य रत्नाकर, कविकुल-तिलक और सरस्वती निलय आदि उनकी उपाधियां थीं, जिनका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्थों में स्वयं किया है। इससे उनके व्यक्तित्व और प्रतिष्ठा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है । वे सरस्वती के विलासी और स्वाभाविक काव्य-कला के प्रेमी थे। इनकी काव्य-शक्ति अपूर्व और पाश्चर्यजनक थी। प्रेम उनके जीवन का खास अंग था। वे २. कप्पड़ = कपड़ा,प्रवसे = प्रवक्ष्य, हट्ट = हाट (बाजार) तोंद = थोंद (उदर) । लीह = रेखा (लीक), चंग= प्रच्छा, डर=भय, डाल=शाखा, पाहुण= पाहुना, लुक्क=लुकना (छिपना) आदि अनेक शब्द हैं । जिन पर विचार करने से हिन्दी के विकास का पता चलता है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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