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________________ प्रस्तावना off घिउ होइ विरोलिए पारिए'- - क्या पानी विलोने से घो मिल सकता है ? 'दइवायत्तु जइ वि विलहिव्वउ, तो पुरिसिं ववसाउ करिव्वउ ।' यद्यपि सब कर्म दैवाधीन हैं, तो भी मनुष्य को अपना कर्तव्य करना ही चाहिये । कवि परिचय कवि के पिता का नाम माएसर ( मातेश्वर) और माता का नाम धनश्री था कवि का वंश धक्कड़ था । यह एक प्रसिद्ध वंश था जिसमें अनेक महापुरुष हुए हैं। इस धर्कट वंश की प्रतिष्ठा दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में रही है। दोनों ही सम्प्रदायों में इस वंश द्वारा लिखाये गये ग्रन्थों की प्रशस्तियां मिलती हैं जिनसे उनकी धार्मिक परिणति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । कवि अपने समय के प्रतिभा संपन्न विद्वान थे । उनका सम्प्रदाय दिगम्बर था, क्योंकि ग्रंथों में - 'भंजि वि जेरण दियंबरि लायउ' (संधि ५-२० ) जैसा वाक्य दिया हुआ है'। साथ ही सोलहवें स्वर्ग के रूप में अच्युत स्वर्ग का नामोल्लेख है और प्राचार्य कुन्दकुन्द की मान्यतानुसार सल्लेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत स्वीकार किया है । 'चउथउ पुरण सल्लेहरण भाव ' ( संधि १७- १२ ) यह मान्यता भी 'श्वेताम्बर सम्प्रदाय में नहीं पाई जाती । इस कारण वे दिगम्बर विद्वान थे, यह सुनिश्चित है। इनका समय विक्रम की १०वीं शताब्दी होना चाहिये | सम्पादक ने भी ग्रन्थ की प्रस्तावना में डा० हर्मन जैकोबी के निर्णय को स्वीकृत तथा पुष्ट करते हुए कवि को दिगम्बर लिखा है । यह ग्रन्थ गायकवाड़ ओरियन्टल सीरीज बड़ौदा से प्रकाशित हो चुका है। ११२ वीं ११३ वीं और ११४ वीं प्रशस्तियाँ क्रमश: 'महापुराण' 'नागकुमार चरिउ' और 'जसहर चरिउ' की हैं, जिनके कर्ता महाकवि पुष्पदन्त हैं । प्रस्तुत महापुराण दो खंडों में विभाजित है, आदि पुराण और उत्तर पुराण । आदि पुराण में ३७ सन्धियाँ है जिनमें आदि ब्रह्मा ऋषभदेव का चरित वरिंगत है, और उत्तर पुराण को ६५ सन्धियों में अवशिष्ट २४ तीर्थंकरों, १२ चक्रवर्तियों, नवनारायण, नव प्रति नारायण आदि त्रेसठ शलाका पुरुषों का कथानक दिया हुआ है । जिसमें रामायण और महाभारत की कथायें भी संक्षिप्त में श्रा जाती हैं। दोनों भागों की कुल सन्धियाँ एक सौ दो हैं, जिनकी अनुमानिक श्लोक संख्या बीस हजार से कम नहीं हैं। महापुरुषों का कथानक अत्यन्त विशाल है और अनेक पूर्व जन्मों की अवान्तर कथानों के कारण और भी विस्तृत हो गया है । इससे कथा सूत्र को समझने एवं ग्रहण करने में कठिनता का अनुभव होता है । कथानक विशाल और विशृंखल होने पर भी बीच, बीच में दिये हुए काव्य मय सरस एवं सुन्दर प्राख्यानों से वह हृदय ग्राह्य हो गया है । जनपदों नगरों और ग्रामों का वर्णन सुन्दर हुआ है । कवि ने मानव जीवन के साथ सम्बद्ध उपमानों का प्रयोग कर वर्णनों को अत्यन्त सजीव बना दिया है। रस और अलंकार योजना के साथ पद व्यंजना भी सुन्दर बन पड़ी है। साथ ही अनेक सुभाषितों और वाग्धारानों से ग्रन्थ रोचक तथा सरस बन गया है । ग्रन्थ में देशी भाषा के ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त हए हैं जिनका प्रयोग वर्तमान हिन्दी में १. देखो, अनेकान्त वर्ष ७ किरण ७-८ में धनपाल नाम के चार विद्वान । २. उठ्ठाविउ सुत्तउ सीहकेण - सोते हुए सिंह को किसने जगाया । माणु भंगुवर मरणु ण जीविउ-अपमानित होकर जीने से मृत्यु भली है। को तं पूस णिडालs लिहियउ - मस्तक पर लिखे को कौन मेंट सकता है ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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