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________________ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह परिशिष्ट नं० १ कुछ मुद्रित ग्रन्थ-प्रशस्तियों का परिचय अपभ्रंश भाषा में अनेक छन्द ग्रन्थ लिखे गए होंगे, क्योंकि अपभ्रंश के ग्रंथों में अनेक छन्दों का प्रयोग इस बात का सूचक है कि अपभ्रंश भाषा में अनेक छन्द ग्रन्थ और उनमें उनका परिचय दिया हुआ था, अन्यथा ग्रंथकार उनका अपने ग्रंथों में उल्लेख कैसे कर सकते थे । खेद है कि वे इस समय उपलब्ध नहीं है । महास्वयंभूदेव का छन्द ग्रन्थ है, जिसमें प्रादि के ३ अध्यायों में प्राकृत छन्दों का और अन्त के पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छन्दों का परिचय सोदाहरण दिया हुआ है । छन्द की यह प्रति बड़ौदा के श्ररियन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट की है। जिसे संवत् १७२७ श्राश्विन सुदि ५, गुरुवार के दिन रामनगर में कृष्णदेव ने लिखा था । यह प्रति प्रपूर्ण है, उसके शुरू के २२ पत्र नहीं हैं, यह प्रो० एच०डी० वेलंकर को प्राप्त हुई थी। जिसे उन्होंने सम्पादित कर प्रकाशित करा दिया था' । १३१ ११०वीं प्रशस्ति छन्द ग्रंथ की है । जिसके अपभ्रंश भाग की आदि अन्त प्रशस्ति दी गई है । जिसमें उदाहरण सहित प्रपभ्रंश के छन्दों का विवेचन है । ग्रंथ के अन्तिम अध्याय गाहा डिल्ला, पद्धड़िया आदि छन्दों को स्वोपज्ञ उदाहरणों के साथ दिया हुआ है । इनका परिचय 'छन्दग्रंथ' शीर्षक में दिया गया है । इस छन्द ग्रंथ का अपना वैशिष्ट्य है जो ग्रंथ का पारायण किये विना अनुभव में नहीं आ सकता । कवि स्वयंभू के इस छन्द ग्रंथ का सबसे पुरातन उल्लेख जयकीर्ति ने अपने 'छन्दोनुशासन' के नन्दिनी छन्द में किया है। इससे स्पष्ट है कि स्वयंभू के इस छन्द ग्रन्थ का १०वीं शताब्दी में प्रचार हो गया था । ग्रंथ भंडारों में इसकी अन्य प्रतियों की तलाश होनी चाहिये । जयकीर्ति का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी है । जयकीर्ति कन्नड़ प्रान्त के निवासी दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थे । उनका छन्द ग्रंथ एच. डी. वेलंकर द्वारा सम्पादित होकर जयदामन ग्रंथ में प्रकाशित हुआ है । पाठक वहां से देखें । 1 १११ वीं प्रशस्ति 'भविसयत्त कहा' की है, जिसके कर्ता कवि धनपाल हैं । प्रस्तुत कथा ग्रंथ में ३४४ कडवक हैं, जिनमें श्रुतपंचमी के व्रत का महात्म्य बतलाते हुए उसके अनुष्ठान करने का निर्देश किया गया है साथ ही भविष्यदत्त और कमलश्री के चरित्र चित्ररण द्वारा उसे और भी स्पष्ट किया है । ग्रंथ का कथाभाग तीन भागों में बटा हुआ है। घटना बाहुल्य होते हुए भी कथानक सुन्दर बन पड़े हैं । उनमें साधु और असाधु जीवन वाले व्यक्तियों का परिचय स्वाभाविक बन पड़ा है। कथानक में अलौकिक घटनाओं का समीकरण हुआ है । परन्तु वस्तु वर्णन में कवि के हृदय ने साथ दिया है । अतएव नगर देशादिक के वर्णन सरस हो सके हैं । ग्रंथ में जहाँ श्रृंगार वीर और शान्त रस का वर्णन है, वहाँ उपमा, उपेक्षा, स्वभावोक्ति और विरोधाभास अलंकारों का प्रयोग भी दिखाई देता है । भाषा में लोकोक्तियों और वाग्धाराओं का भी प्रयोग मिलता है । यथा १. स्वयंभू - छन्द के प्रथम तीन अध्याय रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे के जर्नल सन् १९३५ पृ० १८५८ में दिए हैं और अपभ्रंश के शेष पांच अध्याय बाम्बे यूनिवर्सिटी जर्नल (जिल्द ५ नं० ३ नवम्बर सन् १९३६) में प्रकाशित हैं । पाठक वहाँ से देखें २. तो जो तथा पद्म पद्म निधिर्जतो जरौ । ३. देखो मि० गोविन्द पै का लेख Jaikirti in the Karnnatak quarterly प्रबुद्ध कर्नाटक V. L. 28 N. 3 gan. 1947 महाराजा कालेज मैसूर । तथा बम्बई यूनिवर्सटी जनरल सितम्बर १९४७
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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