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________________ घनादि वैभव से अत्यन्त निस्पृह और जैनधर्म के अटल श्रद्धानी थे। उन्हें दर्शन-शास्त्रों और जैनधर्म के सिद्धांतों का अच्छा परिज्ञान था, वे राष्ट्रकूट राजाओं के अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीय के महामात्य भरत के द्वारा सम्मानित थे। इतना ही नहीं किन्तु भरत के समुदार प्रेममय पुनीत व्यवहार से वे उनके महलों में निवास करते रहे, यह सब उस धर्मवत्सलता का ही प्रभाव है। जो भरत मंत्री उक्त कविवर से महापुराण जैसे महान् ग्रंथ का निर्माण कराने में समर्थ हो सके। उत्तर-पुराण की अंतिम प्रशस्ति में कवि ने अपना जो कुछ भी संक्षिप्त परिचय अंकित किया है उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि कविवर बड़े ही निस्पृह और अलिप्त थे और देह-भोगों से सदा उदासीन रहते थे। उत्तरपुराण के उस संक्षिप्त परिचय पर से कवि के उच्चतम जीवन-कणों से उनकी निर्मल भद्र प्रकृति, निस्संगता और अलिप्तता का वह चित्रपट पाठक के हृदय-पटल पर अंकित हुए बिना नहीं रहता। उनकी अकिंचन वृत्ति का इससे और भी अधिक प्रभाव ज्ञात होता है, जब वे राष्ट्रकूट राजाओं के बहुत बड़े साम्राज्य के सेना नायक और महामात्य द्वारा सम्मानित एवं संसेवित होने पर भी अभिमान से सर्वथा अछूते, निरीह एवं निस्पृह रहे हैं। देह-भोगों से उनकी अलिप्ता होना ही उनके जीवन की महत्ता का सबसे बड़ा सबूत है । यद्यपि वे साधु नहीं थे; परन्तु उनकी वह निरीह भावना इस बात की संद्योतक है कि उनका जीवन एक साधु से कम भी नहीं था। वे स्पष्टवादी थे और अहंका को उस भीषणता से सदा दूर रहते थे; परन्तु स्वाभिमान का परित्याग करना उन्हें किसी तरह भी इष्ट नहीं था, इतना ही नहीं किन्तु वे अपमान से मृत्यु को अधिक श्रेष्ठ समझते थे। कवि का समय विक्रम की दशवी शताब्दी का अंतिम भाग और ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । ११५वीं प्रशस्ति 'करकंडुचरिउ' की है जिसके कर्ता मुनि कनकामर हैं। यह ग्रन्य दश सन्धियों में विभक्त है । जिनमें राजा करकंडु का जीवन परिचय अंकित किया गया है। चरित नायक की कथा के अतिरिक्त तो आवान्तर कथाओं का भी उपक्रम किया गया है, जिनमें मंत्र शक्ति का प्रभाव, अज्ञान से आपत्ति, नीच संगति का बुरा परिणाम और सत्संगति का अच्छा परिणाम दिखाया गया है, पांचवीं कथा एक विद्याधर ने मदनावलि के विरह से व्याकुल करकंडु के वियोग को संयोग में बदल जाने के लिए सुनाई । छठी कथा पांचवीं कथा के अन्तर्गत अन्य कथा है, सातवीं कथा शुभ शकुन-परिणाम सूचिका है, आठवीं कथा पद्मावती ने विद्याधरी द्वारा करकंडु के हरण किये जाने पर शोकाकुल रतिवेगा को सुनाई । नोमी कथा भवांतर में नारी को नारीत्व का परित्याग करने की सूचिका है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि उस काल में ये कथाएँ तात्कालिक समाज में प्रचलित होंगी। उन्हीं को कवि ने अपनी कल्पना का विषय बनाया है । कवि ने कथावस्तु को रोचक बनाने का अच्छा प्रयत्न किया है । ग्रन्थ की भाषा में देशी शब्दों का प्रचुर व्यवहार है। जो हिन्दी के अधिक नजदीक है । रस, अलंकार, श्लेष और प्राकृतिक दृश्यों से ग्रंथ सरस बन पड़ा है, किन्तु उनमें चमत्कारिकता नहीं है और न पुष्पदन्तादि कवियों जैसी स्फूर्ति, प्रोज-तेज एवं प्रभाव भी अङ्कित हो सका है। हाँ, ग्रन्थ में तेराउर या तेरापुर की ऐतिहासिक गुफाओं का परिचय भी चित्रित किया गया है । यह स्थान प्राज भी धाराशिव जिले में तेरपुर के नाम से प्रसिद्ध है, प्राचीन ऐतिहासिक दर्शनीय स्थान है । यह ग्रन्थ डा० हीरालाल जी एम. ए. द्वारा सम्पादित होकर कारंजासीरीज में मुद्रित हो चुका है। इसी से इसकी प्रशस्ति परिशिष्ट नं. १ में दी गई है । कवि परिचय मुनि कनकामर चन्द्र ऋषि गोत्र में उत्पन्न हुए थे। उनका कुल ब्राह्मण था; किन्तु देह-भोगों से वैराग्य होने के कारण वे दिगम्बर मुनि हो गये थे । कवि के गुरु बुध मंगलदेव थे। कवि भ्रमण करते हुए
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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