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________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह गौरिति प्रयोक्तव्ये अशक्त्या प्रमादिभिर्वा गाव्यादयस्तत्प्रकृतोपभ्रंशाः प्रयुज्यन्ते।" -वाक्यपदीयम् प्रथम कांड का० १४० इन उल्लेखों से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि तत्सम अपभ्रंश किसी भाषा विशेष का नाग नहीं था किन्तु संस्कृत के विकृत रूप ही अपभ्रंश कहलाते थे । अपभ्रंश का तीसरा उल्लेख हमें भरत मुनि के 'नाट्यशास्त्र में मिलता है। जिसमें भाषाओं की व्यवस्था का उल्लेख करते हुए बतलाया गया है कि-'हिमवत, सिन्धुसौवीर तथा अन्य देशों के आश्रित लोगों में नित्य ही उकार बहुला भाषा का प्रयोग करना चाहिए। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के ३२ वें अध्याय में जो वाक्य उपलब्ध होते हैं वे अपभ्रंश के प्रारम्भ की सूचना देते हैं । 'मोरुल्लउ-नच्चन्तउ। महागमे संभत्तउ । मेहउ हर्नु गोइ जोण्हउ । णिच्च रिगप्पहे एहु चंदहु ।' आदि समुद्धत वावय अपभ्रश के प्रारम्भिक रूप हो सकते हैं। इनमें कुछ विशेषतायें अपभ्रंश भाषा की देखी जाती हैं। इससे ध्वनित होता है कि नाट्यकार के समय हिमालय से सिन्धु तक के देशों में जो बोली प्रचलित थी उसमें उकार का प्रयोग विशेष रूप से होता था। समस्त प्राकृत भाषाओं में अपभ्रंश हो एक ऐसी भाषा है जिसमें कर्ता और कर्म कारक की विभक्ति में 'उ' होने से उकार का बाहुल्य पाया जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अपभ्रंश भाषा का आदि क्षेत्र हिमालय से सिन्धु तक का भारत का वह पश्चिमोत्तर प्रदेश ही है। परन्तु भरत मुनि के समय वहां अपभ्रश एक प्रकार की बोली ही थी, जिसे विभापा कहा गया है, उसने तब तक साहित्यिक रूप धारण नहीं कर पाया था, और न वह अपभ्रश विशेष से प्रसिद्धि को ही पा सकी थी, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस भापा ने परवर्ती काल में बड़ी उन्नति की है और उसने इतना अधिक विकास पाया कि विक्रम की ६वीं ७वी शताब्दी से कुछ समय पूर्व उसमें गद्य-पद्य में रचना होने लगी थी। कवि भामह ने अपने काव्यालंकार में संस्कृत प्राकृत की रचनाओं के साथ अपभ्रंश की गद्य-पद्य मय रचना का भी उल्लेख किया है। महाकवि दण्डी ने इस सम्बन्ध में कुछ मौलिक सूचनायें भी की हैं। और वे इस प्रकार हैं (१) दण्डी के समय तक ग्रन्थकार संस्कृत के सिवाय अन्य समस्त भाषाओं को अपभ्रश कहते थे, जिसकी परम्परा का उल्लेख पतंजलि ने अपने महाभाष्य में किया है। हिमवसिन्धुसौवीरान् ये जना: देशान् समुपाश्रिताः । उकारबहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषां प्रयोजयेत् ॥ -नाट्यशास्त्र १७-६२ "शब्दाथों सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद् द्विधा । संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति विधा ।" -काव्यालंकार १-३६ "तदेतद्वाङ मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा । अपभ्रंशश्च मिश्रं चेत्याहुरार्याश्चतुर्विधम् ॥ संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः । तद्भवास्तत्समो देशी नित्यनेकः प्राकृतक्रमः ।। आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः । शास्त्रे तु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ॥" -काव्यादर्श १, ३२, ३३, ३६
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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