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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
विजयतु पास-सह-मिलिय-धरण-फण-मणि-मयूह-णिउरंवा। घणा-बाइ-कम्म-वा-रहण सुद्ध माणग्गि-जाल पुजब्बा ॥२ रवकसि लग्गसुतणुप्पहाए धम्मोवएस समम्मि । स जयड वि सो जस्सहि सरमम्म-तडिन्य विप्फुरियं ॥३॥ हरिणको गिद्दोसो सम्पो (१) मय-णास विहाउस्सो। सच्चित्तस्स विपासो संति जिणे सो जये जयउ ॥४॥ अन्तिमभाग:ताई रज्जि वढतए विक्कमकालि गए
बारह सय चड मालए सुक्ख । सुहि वक्खमए भइवयहो सियपक्खेयारिसिदिणि तुरिउ ॥ सकठिणक्खत्तए समप्पिड सिरियेमियाह चरिउ । उत्तर माहुर संघायरियहो चंदकिति णामहो, सुहचरियहो पाय-पणासिय परवाक दहो? सगुणादिय कण्हणरिंदहो, सी अमरकित्ति णामके। जिणवर दसण गयणमयंकहो याहिट बिरुद्ध अमुणा तं ॥ जं महु भासिउ कन्यु कुर्णते तं महु खमहु सरासह । सामिणि जिणवयणुउ भव-सिव संभाहिणि । असाव वुहिहिं समंजस चित्तहिं मज्मत्यहि । -प्रति भट्टारकभंडार सोनागिर
लिपि सं० १९१२ ३२ णेमिणाह चरिउ (नेमिनाथ चरित),
कवि लक्षमण आदिभाग:विस-रह-धुर-धारड विस्स वियारट विसय विसम विसंकउ विड पणममि वसु गुणहरु वसुधर तिय-धवारिय लंछण गुण-णिलड
(चतुर्विशति तीर्थकरोंको स्तुतिके बाद प्रारम्भ किया गया है।)
जाह सार सरवर चडादसिर-वरण, पाणंदिय पहिवण तहि विसरण । जहि ईहर मणहर विसाल, वं मेह जियालय सहिय साख । तिहुवण मंदिर गिह मणि विहार, फेडिव एवंतण-बंधयार। अहिं पठमु जाड वायरण सारु, जो बुदियण कंठाहरणु चाह। सिद्धतिय जइबर हुई तस्थ, जहिं भवियण लीइय मोक्स-पंच। जहिं णिच्च महोच्छव जइण गेहि, कय भवियहि भव प्रासंकिरहि । तहिं शिवसइ रयण गल्ल भन्छु, परणारि सहोयर गलिय-गन्दु। लखमणामहं तहं तणउ पुतु, लक्खम सराउणामे विसयहिं बिरुत्तु । पुरबाड माहिसउर तिलड शाणि,
सो अह णिसि बीणड जइणि-वाणि ॥ पत्ता-तहि जोयड वह रायड, अवलोएविष्णु भवगह । तं किज्जइ हिड प्रत्यु, जेण जीड व महगह ॥२१॥
पउरवाल-कुल-कमख-दिवायरु, विजयवंसु संघहु मय सावरू । धण-का-पुत्त-मत्व-संपुण्ड , भाइस राषट स्व-रत्रएयाउ । तेण विकयड गंथु प्रकसायह, बंधव अंबएव सुसहायइ। कम्मक्खह गिमितु माहासिड, प्रमुगतिण पमाणु पयासिड ॥ जहीयाहिट किट वाएर, माणदेवि समह परमेसरि । लक्खण-छंद ही जं भासिड, तं बुहयण सोहेवि पवासित। । प्रारंभिड प्रासाहिं तेरसि, भड परिपुण्ण बहतिय तेरसि । पन्ह सुणहजो बिहा लिहावा,
मण-बंधियत सो सुह पावह। पत्ता-जहीयाहिट मत्त-विहणिड साहिट गपट यागि
ममुखमिन्बट बाय किज्जड साहसोडग्गमणि॥
इति ऐमिणाहचरिए अबुहकहरयण सुभ-लक्खणेण विराए भग्वयामणादे ऐमिकुमार संभवो शाम पढमो परिमो समत्तो॥ अंतिम भाग:
मालषय विसय अंतरि पहाणु, सुरहरि भूसिर सिसव-गा। शिवसह पट्टणु गामई महंत, गाणंदु पसिर बहु रिद्विवतु । पाराम गाम परिमिड धणेहि, थं भू-मंडण किड शियय-देहि ।