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________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह 1५५ तेयपालु महु यामुय सिब्बड, सो पणवेप्पिणु रिसहजिणु मक्खय-सोक्ख-णिहाणु ॥ जिणवर-मत्ति विबुह-गुण-खड्ड। प्रवक-पणवेवि भडारड रिसह गाहु, कम्मक्लाय कारण मन अवहारण मरहमत्ति मह रहय। पुणु अजिउ जिणेसह गुण साहु । जो पन्ह पढावा णियमणि भावह येहु चरिउ तुइ सहियड ॥ x x पहु सन्धु जो सुबइ सुणावद, मन्तिमभागःएहु सत्यु जो लिहइ लिहावह । इय भरहखेत्त संपण्ण देसु, एहु सत्थु जो महि विस्थारह, ठिउ गुज्जरत्तु णामेण देसु । सो बरु बहु चिरमल प्रवहारह ॥ नासु वि मज्महं ठिठ सुपसिद्ध, पुणु सो भविषणु सिवपुरि पावड, शायर-मंडल-बब-कण-समिछु । जहि जर-मरणुण किंपि वि भावह । तहिं पयरु गाउ संठियड ठाणु, शंदड गरवह महि दयवंतर, सुपसिबु जगत्तर सिय पहाणु । शंदडसावय जणु वय-वंतड ।। सिरि वीरसूरि वहि पवर-मासि, महि भिण-शाहहु धम्मु पबद्दड, विण्यासंकिर गुण-यण-रासि । खेनु सब्व जणवह परिवड्ढउ । मुणिभर सीसु तहिं जाउ संतु. कालि कालि वर पावसु बरिसड, मोहारि-विणासलु हिम्ममत्त । सब लोउ दय-गुण उक्करिसउ ॥ सासुवि सुकमारुह पयाड, अज्जिय मुणिवर संघु वि यंदड, सिरि कुसुमभर मुणीसहु सीसु जाउ । सयलु कालु जिणावर जणु वंदउ । तासुधि भविषण-यण मास पूरि, ज किंपि वि होणहिड साहिड, संजाय सीसु गुणभहसूरि। हीण-बुद्धि कम्युवि णिवाहित ।। हउं तासु सीसु मुणि पुण्णभद, सं सरसइ मायरि सम किज्जड, गुणसील-विहूसिड गुण-समुह । अवर विपडिय दोसुम दिज्जड । महबुद्धि-विहीणेउ एहु कम्यु, विरयउ भवियण णिसुणंत सब्बु । जो पारु दयवंत हिम्मत चित्तड णिचु जि जिणु पाराहा। बत्ता-जा मज्जप-साबह सवा दिवायह सो अप्पड माइवि केवल पाववि मुत्ति-रमणि सो साहा।। जाम मेरु महि-बलव पिका इस वरंग-चरिए पंडियतेयपाल-विरइए मुणिविडल जाहवह यहंगणु जणमण रंजणु कित्तिसुपसाए वरंग-सम्वत्थसिद्धि-गमणो याम चडत्य संधी ता एड सत्यु जह होइ चिहा परिच्छेमो सम्मसो, संधि ॥ इय सिरि सुकुमालसामि-चरिए भम्बयणाणंदयर सिरि -प्रति ,भारक हर्षकीर्ति शास्त्रभंडार, अजमेर गुणभा सीसुमुणि पुरणमाह-विरइए सुकुमालसामि-सम्वत्थलिपि० सं० १६.. सिदिगमणो शाम षट्ठो परिच्छेमो समतो। ३० सुकुमानचरित (सुकुमाल चरित) -प्रति पंचायती मंदिर शास्त्र भंडर दिल्ली । मुनि पूर्णभद्र लिपि सं० १६३२ पादिभाग:पडमु जियवर विवि भावे जाड-मउड ३१ णेमिणाह चरित (नेमिनाथ चरित) विहूसिपर विसय विण्दु मपणारि पासणु। अमरकीर्ति रचनाकान सं० १२४४ असुरासुर-सर-पुष-पशु सत्व च श्रादिभागाबव पयत्य यव पयहि पयासा॥ विजरंतुमि पह-यह-ससिणा पुरण-पहा पबोहंता । खोयाखोषपयासयह जसु उप्पापड बाणु । कुमुदाय हरिमा सिपमणि पडिबिम्ब-सक्खणा णिच् ॥१
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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