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________________ भान्तममाग: जेनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह ५४-चंदण छट्ठी कहा ( चंदनषष्ठो कथा ) सुएि पय पए विवि घरि गय प्रपाव, जाणिय-चउगइ-दुह कर्ता -भ० गुणभद्र सुहसहाव आदिमागःसीनवह एवउ किउविहिय जेम, मणि भासिउ सम्वहंावतेम परमविवि जिपयजुयल जम्म-जरा-मरण-खय पडियता अन्तु विजो परणारी करेइ, सो एरिसु फलु भवसें लहेइ । सहिट्टिहिं । सारंग साहु सुउ गुणविलासु इय कह मणि भावइ देवदासु : फलु मक्खमि सब्बउ दस्खमि भवियहं चंदण छट्टिहिं ॥ अन्तिममाग:पत्ताः पत्तासिरीगुणभद्द मुणीसरेण यह कह किय पवयणु मरणुसरेण सिरि मलयकित्ति मुणिवरह पयारिणय मणि झाइवि विगयरप जिण एत्ति उमग्गिउ देहिलहु जर-जम्मणं-मरण हरेहि बहु गुणमह गणीसें रइय इह चंदण छट्टिहिं सरस कह ॥५॥ ५१-पक्खवह वय कहा पाक्षिकव्रतकथा) - ५-नरकउतारी दुग्धारस कथा - कर्ता-भ० गुणभद्र आदिभाग ' कर्ता-भ० गुणभद्र वंदिवि सिरि वीरहो पय जुयलु भत्तिए णासिय कम्ममलु। . भादिभाग:- . पक्खवावयहो कह कहमितिहा, गणहर पयडिय पुवजिहा वंदिवि सिरि पासु कय-दुह-गासु विरइय मोक्खणिवासु । बरणाणविलासु हय समलासु विसिय तामरसासु ॥ अन्तिमभाग: अन्तिमभाग:पत्ताभवनोइवि मणु थिरु ठाविवि पुत्रसूरि-विरइय-कहा।। सिरी वोधू गंदरणु संहणपालु, तें काराविय इह कह गुणालु। गंदउ सो गहि जा सूर-चंदु, रिणय-कुल मंडणु कित्तोइ कंदु ।। गुणभद्दे कोमलसद्दे पयडिय णंदउ भुवणि इह ।।८।। पत्ता:५२-आयासपंचमी कहा (आकाशपंचमी कथा) ___ सिरीमलयकित्ति पय-पंकयहं भसलें गुणभद्द मुणीसरेण कर्ता-भ. गुणभद्र बरइय कह इह भवियण गणहं णिय मण परशुसारें दय धरेण सिद्धि विलासिरिण कंतु पणविवि भावे हय मरणु । ५:--णि ख सत्तमी कहा [निदुःख सप्तमी कथा ) बीरजिरिंगदु महंतु कम्म-महिंधण-दवजलणु ॥ कर्ता-भ० गुणभद्र णहपंचमिबिहि विराम मउव, जिह पूज्वायरियहि रहय भव्य श्रादभागभन्तिमभागः सासय सिरिकंतहो अगहियकंतहो अरहंतहो कलिलंतहो। णिज्जिय णियकंतहो अइसयवंतहो पणविवि पयजुय संसहो॥ पत्ता मन्तिमभागकह पक्खिय जिहमह लक्खिय मलयकित्ति पयभरों। पत्तागुणभहे कोमलसर्दै मुत्तिसुहा-मय सत्तें ॥६॥ गोवग्गिरिणयार बसंवएण मलयकित्ति पय-भत्तएण। ५३-चंदायणक्य कहा (चंद्रायणव्रत कथा) . गणमहसूरि णामेण इय णि खि सत्तमी रइया ।।५।। . . कर्ता-भ० गुणभद्र ५७-मउडसत्तमी कहा (मुकुट सप्तमी कथा। भादिमाग: कर्ता-भ० गुणभद्र णविवि रिसिहेसरु परमजिगु,णासिय भवियण दुरियरिण। आदिमागफलु पयडमि चंदायणक्यहो तारिय जन्म जलहिजणहो। पणविवि सिरि रिसहहु पयजुयलु जम्मजरामरणत्तिहरु । अंतिम भागः माहासमि जिम जिण लद् फल मउडाइहि सत्तमिहिवरु । अन्तिममागपत्ता :इस चंदायणबउ पक्लिय कयसिउ मलयकित्ति पय-तिए। सिरि मलयकित्ति सीसेण इह विरयइ गुणमई सुकह । गुणभर गणीसें विगलमणीसें भन्वयणहें णिय-सत्तिए ॥२॥ शियमह प्रणुसार विहिय सिव सोहहु मुणिवर रइयकिव ।।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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