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________________ १०४] वीरसेवावन्दिर प्रन्थमाला ५ः-पुप्फजली कहा (पुष्पांजलि का पारसउ पावसु बज्जइ मद्दलु । कर्ता-भ० गुणमा घरिघरि गच्चहु कामिरिण सहरसु, . आदिभाग घरिघरि रिडि विडि जायउ वसु । सिरि पाहुणेवप्पिणु हिय इघरेनिगु सासयसिव-सुहकारतु । रिणयगुरु कम वंदिवि मरिण अहिणंदिवि भवदुह-भूरुह-वारा जिणगाह करहि दयमहकिज्जउ मयाएत्तिउलहु संपाउ । अन्तिमभाग रबरगत्तउ सारउ भवदुहतारउ जिणवर सामिय दिज्ज। सिरि लक्खणीह कुल-कमल-बंधु, इति दशलक्षणव्रत कथा समाप्ता बहु भीममेणु गुण-रयण-सिंधु । ६१- अणंतवय कहा (अनंतव्रत कथा) तहु उवरोहें कहकहिय एह, कर्ता-भ गुणभद्र आदिमागएंदउ चिर पसरउ कह सुमेह । घत्ता पणविवि सिरिजुत्तहं गुत्तित्ति गुत्तहं पंचगुरुहु पय-पंकयई सिरि मलयकित्ति पय-भत्तियइ, रइय कहाणिय ससियइ। माहासमि सुकय पयासमि भवियहं पाविय संपवई। गुणभद्द गणीसें प्रप्पहिय भव्यहं लोयह पाइमाहिया ।।८।। अन्तभाग सिरीजयसवाल-कुल-गयण-चंदु, ५६... रयणत्तयवयकहा (रत्नत्रय व्रतकथा) घउधरिय लखणु धम्माहिएंदु । कर्ता-भ• गुगभद्र सउ पंडिय सिरीमणि भीमसेणु आदिभाग कलि-कलिल-पय-संदोह-सेणु । पणविवि जिणइंदु णिहणिय तंदु केवलणाण दिवायरु । तहो प्रणुरोहें किय कह अपुन्व, ससारहु तारु कय सुहसारु रयणत्तय रयणायक। पाइरियं गुणभद्दे ण दिव्व। पुरा पणविवि सिरिपरमेट्रि पंचणियमणिपरिगुरु-पय-य-पवंच जो पढइ पढावइ एयचित्त, रयणत्तय कह विरियमि विचित्ति सेणियह जेम गोयमेण उत्त तं गाण पयासह गाइमित्त । अन्तिमभाग गंदउ जिणधम्मु सुदया-समेउ, सिरि मलयकित्ति पय-भत्तएण जिरणवर-गुण-अणुरत्तएण गंदउ परिंदु मरिगरण-प्रजेउ । गुणभद्दे विरइय एह कहा गंदउ रणासिय जम्म-दुहा ॥७॥ एंदउ चउविहु संघु वि सु-भव्वु, ६०-दहलक्खणषय कहा [दशलक्षणव्रतकथा) गंदउ मुणि-णियरु विण?-गव्वु । कर्ता-भ० गुणभद्र संखेवें वित्थरु परिहरेवि, आदिभागसिवसिरि भत्तारहो णिहणियमारहो विय लियहारहो सीयलहो एियगुरु-पय-पंकयमणिपरेवि । परमप्पयलीणहो दुह-सय-खीणहो पविवि पगिरि सीमहो मह हीऐं भत्ति-विसालएण, सिरिजय प्रणंतकय जिय-मएण । अन्तिमभाग घत्तापढइ गुणइ सद्दहइ जु भावह, एसिउ मह दुज्जिउ लह संरगजउ केवलणाण मरा विमल मुत्तिसिरि प्रवसे सो पावइ । पर अण्ण जि मग्गमि जिण-पह लग्गमि भवि भविमोहिहो लक्खणसीह पउपरिय सुपुत्तहो, सपटक भीमसेण णामहो गुणजुत्तहो । इति अनंत व्रतकथा समाप्ता तह उवरोहें गुणभह मुणीसें, ६२-लद्धिविहाणकहा ( लब्धिविधान कथा) विरइय इह कह विगय मणीसें । कर्ता-भ० गुरगभद्र मनयकित्ति मुणिणाहहो सीसें, आदिभागःमग मह लेलिहाण परवीसें। पराविधि जिणसामि सिव-पय-गामि सग्ग फलोहत। सावय लोयह होउ सुमंगबु, पड़ लडि-विहाणु सुक्ख-णिहाणु भणमि पण मण-पदयर गुणभई पालखणष गुणभः
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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