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________________ जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह [१०५ अन्तिमभाग-- ६६ माराहणासार (प्राराधनासार) उधग्ण संघवह जिणालयम्मि, पादिभाग: -वीर कवि शिवसने गुणभद्दे सुधम्मि। इय कह विरहय पविडियबंध, णाणपिंड गुण सायर भुवणदिवायर पणविवि सिद्ध जिणेसर। वोच्छमि माराहरण सिव-सुह-साहरण जह मक्खियं जिगवर संखे। कम जण पुण्णबंध । भरहेसर पुछियउ जिरोसरु, सारंग साहु सुउ गुणविलासु, माइणाहु जो जग परमेसरु । इय कह मणि भावइ देवदासु जहं तहं सेरिणय पुछिउ सम्मई, पत्ता : गाण दिवायरु चत्तउ दुम्मई। मिरि गोयम सामि एत्तिउ लहु मह देहि तुहु । जहि जम्मु ण गामि मह विपराणहि तित्थु लह ।।।। मोक्खह कारण प्रक्खिय सामिय, प्रवरुवि तह फलु सिवसुह गामिय । ६३-सोलह कारणवयाहा (षोडशकारण व्रत कथा) संसारह भय-भीरु गरेसरु, कर्ता-भ० गुणभद्र पुछिय सेणिय जो जगईसरु । अदिभाग: वीरु भणई चउविह पाराहणु, बंदि अपवग्ग मग्गु अण्णह जेण होइ जणु मुत्ति पहु। जा दुहु-णासण-सिव-सुह-साहण । सोलहकारणवयविहि कहमि जे भवसायर लहु परिलहमि ।। सो रिणच्छय-ववहार मुरिणज्जइ, अन्तिमभागः सो भवियण जिणवरु भासिज्जइ । पत्ता दंसरण णाणु चरित्तु पयासइ, जीवंधरसामि सिवउरगामि एत्तिउ लहु महु विज्जइ। महण्णव तारउ जग विक्खायइ । जहि गउ तहुं ठाणि मइ वि पराणिमण्णु ण मग्ग सिविह।। जे तच्चहरु सम्मत्त भणिज्जइ, . '४-सुगंधदहमी कहा (सुगंधदशमीकथा) जाणिज्जह सो गाणु मुरिणज्जा । कर्ता-भ० गुणभद्र जो थिरु भावइ परु विवज्जइ, पादिभागः सो चारितु महिं भाविज्जइ । तेरह विहि जिणवर प्रक्खिज्जइ, अन्तिमभाग ववहारइं सु बुह जाणिज्जइ। सिरि मलयकिति गुरु-पय णविवि सिरि गुणभर राय कहा जो बारह विहु तउ जिण सासणु, संखेबें कह जिह गणहरि ण रिणय-मइ-प्रणुसारेण तिहा ।। प्रक्खहि बुह सो मुहिं वियक्खणु । ६५-अणंतवयकहा (अनन्तव्रत कथा) पर मुव्वहाणिवित्ति जो किज्जइ, कर्ता भ. गुणभद्र सो तउ णिच्छउ बुह जाणिज्जइ । भाविभाग: इय चउविह माराहण जाणहि, ववहारेण परहं वक्खारहिं । णमो जिण पाय पसूरण सुप्रंष, रिंगच्छइ जागा जिरणवर बुह प्रक्खहि. णमो परमेसरऽकप्पिय-बंध । अप्पा अप्पउमारण उवलक्खहि । णमोवर..."पुज्जिय देह, माराहण फलु जिणवर भासइ, णमो मयणग्गि-विज्झावरण-मेह । केबलणारण प्रणंत पयासइ । अन्तिमभाग:को पढइ पढावइ सुद्धमणु लिहइ लिहावइ णिन्छ। . हंप मालहणसार कारण-कज्ज वियारिणयह। सोमण भवंतरे गुणसहिउ णिरु पावह मणवंधित जो मालहि जगणाह जाणि विणिय मणिमाणियई ॥१॥
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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