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________________ जैनप्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह सो पञ्चसायंगड । सतासु तह य हारराय पुण। हुड जसपाल वियक्खणु बीयउ, वित मरुह-धम्मु जा महिवलएं, पुणु रउपालु पसिद्धतीयड । सायर-जलु जा सुर-सरि मिलिएं। तुमिरचंदपालु सिरि-मंदिर, करणयदि जाम वसुहा प्रचलु, पंचसु सुभ विहराज सुहकरु । वासरहो बट्टउ ताम कुलु। कहा पुरणपालु पुण्णायक, जो पढइ पढावह गुण-भरिभो, सखस बाहुणाम गुणायक । जो निहा लिहावह वर-चरित्रो । भट्टमुरूवएउरूवउ, संताण-बुढि वित्थरइ तहो, एबिटु-सुत्राहि-चिरु-वड्डङ । मणवंछिउ परइ सयलु सुहो । भाइय-भत्तिज्जय-संजुत्तर, बाहुबखि-सामि गुरु-गण-संभरणु, यंदउ वासाधर गुण जुतह । महुणासउ जम्म-जरा-मरण । जंह पच्छिड पसमिय गवें, पत्ता-जो देह लिहावह वि पत्तहो, वायइ सुणइ सुणावह । वासाहर-संघाहिव भब्वें। सो रिद्धि-सिदि-संपय बाहिवि, पच्छह सिव-पउ पावह ॥॥ तहो वयणे मई पारिसु दिट्टङ, श्रीमप्रभाचन्द्र-पद-प्रसादादवाप्तबुड्या धनपालदक्षः । जंगणहर सुअ-केवलि-सिट्टउ । श्रीसाधुवासाधर-नामधेयं स्वकाम्य-सौधे कलाशी-करोति ॥ सो पेच्छिवि मइं पाइय कन्धे, विरयड बुह-धणवाले भब्वें । इति बाहुबलि-चरित्रं समाप्तम् । सिरि-बाहुबलि-चरिउ जं जाणिलं, (मामेर-भंडार, प्रति सं० १५८९ ऐ० पचालान सरस्वती भवनकी प्रतिसे संशोधित) बक्खण छंदु तक्कु ण वियाणिउं । बत्ता-लक्खण-मत्ता-छंद-गण-होचाहिउ जंभणिउ मई २० चंदप्पह-चरिउ (चन्द्रप्रभचरित) भ० यश:कीति तं खमउ सयलु अवराह पाएसरि-सिवह संग ॥ आदिभाग:विक्कम-गरिंद-अंकिय-समए, गमिऊण विमन-केवल-जच्छी-सम्बंग-दिण्ण-परिरंभ। चडदह-सय-संवच्छरहि गए। खोयालोय-पयास चंदप्पह-सामियं सिरसा ॥३॥ पंचास-परिस-चउ-अहिय-गणि, तिक्कान-बहमाणं पंचवि परमेटिर ति-सुद्धोऽहं । वासहहो सिय-तेरसि सु-दिणि । तह मिजब मणिस्संदप्पाह-सामियो परियं ॥२॥ साई याक्ख परिट्रियई, परसिद्धि-जोग-णामें ठिपई। जिण-गिरि-गुह-जिग्गव,सिव-पह-संयप,सरसह-सबिसुह-कारिणिय ससि-वासरे राखि-मयंक-तुले, महुहोउ पसरिणय गुणहि रवरिणय तिहुषण- जनवरणिय गोलग्गै मुति-सुक्कें सबसे। हुबड-कुल-नहयति पुप्फयंत, चढवग्ग-सहिउ-गाव-रस-भरिउ, बहु देउ कुमरसिंहवि महंत । बाहुबलिदेव-सिद्धहो चरियउ । तहो सुर हिम्मलु गुण-गण-विसालु, गुज्जर पुरवाड-सविखार, सुपसिद्धउ पभणह सिद्धपालु । सिरि-सुहड-सेहि गुण-गणिखाउ । जसकित्ति विबुह-करि तुहु पसाउ, हो मणहर छाया गेहणिय, महु पूरहि पाइय कम्व-भाउ । सुहडाएवी पामें भणिय। सं निसुविवि सो भालेह मंदु, तहो उवरि जाउ बहु-विशय-गुनो, पंगलु तोडेसह केम चंदु । घणवालु वि सुरगामेण हुनो। इह हु बहु गणहर गाणवंत, 'कहो विषिण तणुम्भव विउल-गुण, जिप-वयण-रसायण विवरंत ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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