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प्रस्तावना
१२७ चूनड़ीरास, १६८७ में अनेकार्थनाममाला और सीतासतु, १६६४वें में ज्योतिषसार' शाहजहां के राज्य में बनाया और सं० १७०० में हिसार में मृगांकलेखाचरित्र और सं० १७१२ में वैद्यविनोद' बनाकर समाप्त किया है। इससे कवि दीर्घायु वाले थे। उनका समय १७ वी १८ वीं शताब्दी है। इनका विशेष परिचय अनेकान्त वर्ष ११ किरण ४-५ में पृ० २०५ से २०८ तक देखिये।
८वीं प्रशस्ति 'अजित पुराण' की है। जिसके कर्ता कवि विजयसिंह हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में १० संधियां हैं। जिनमें जैनियों के दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ के चरित्र का चित्रण किया गया है। रचना साधारण है और भाषा अपभ्रंश होते हुए भी देशी शब्दों की बहुलता को लिये हुए है।
____कवि ने इस ग्रंथ की रचना महाभव्य कामराय के पुत्र पंडित देवपाल की प्रेरणा से की है। इसी कारण कवि ने ग्रन्थ की पाद्यंत प्रशस्ति में कामराय के परिवार का संक्षिप्त परिचय भी कराया है। वणिपुर या वणिकपुर नाम के नगर में खण्डेलवाल वंश में कउडि (कौड़ी) नाम के पण्डित थे, उनके पुत्र
१. वर्षे षोडशशतचतुर्नवतिमिते श्रीविक्रमादित्यके ।
पञ्चायां दिवसे विशुद्धतरके मास्याश्विने निर्मले ।। पक्षे स्वाति नक्षत्रयोगसहिते वारे बुधे संस्थिते । राजत्साहिमहावदीन भुवने साहिजहां कथ्यते ॥
-देखो, सी० पी० एण्ड बरार कैटेलोग डा० रा. ब. हीरालाल । २. सत्रहसई रुचिडोत्तरई सुकल चतुर्दशि चतु।।
गुरु दिन भन्यौ पूरनु करिउ सुलितांपुरि सहजयतु । लिखिउ अकबराबाद णिरु साहिजहां के राज । साहनि मई संपइ सरिसु देश-कोष-गज-बाज ।। -देखो वही, सी० पी० एण्ड बरार कैटेलोग । ३ 'खंडेलवाल' शब्द एक उपजाति का सूचक है, जो चौरासी उपजातियों में से एक है। इस जाति का विकास राजस्थान के खण्डेला नामक स्थान से हुअा है । इस जाति के ८४ गोत्रों का उल्लेख मिलता है जिनमें छावड़ा, काशलीबाल, वाकलीवाल, लुहाड्या, पहाडया, पांड्या, सोनी, गोघां, भौंपा और काला मादि प्रमुख हैं । इन सब गोत्रों आदि की कल्पना ग्राम नगरादि के नामों पर से हुई है। इस जाति में अनेक सम्पन्न धनी, विद्वान और दीवान जैसे राजकीय उच्च पदों पर काम करने वाले अनेक धर्मनिष्ठ व्यक्ति हुए हैं। जिन्होंने राज्य के संरक्षण में पूरा योगदान दिया है. और प्रजा का पालन पुन्नवत् किया है। क्योंकि यह जाति भी क्षत्रिय ही थी, किन्तु वाणिज्यादि के कारण प्राज वह अपने उस क्षत्रियत्व को खो चुकी है। इस जाति की धार्मिकता प्रसिद्ध है। शाह दीपचन्द और टोडरमल्लजैसे प्रतिभा सम्पन्न विद्वान भी इसी में हुए हैं । जो जैन समाज के लिये गौरव की वस्तु हैं । रामचन्द्र छावड़ा जैसा बीर पाराक्रमी और हौसले वाला राज्य संरक्षक दीवान, अमरचन्द्र जैसा प्रतिष्ठित विद्वान, गुणज्ञ, रजनी. तिज्ञ, धर्मनिष्ठ दयालू दीवान, जिसने अपने देश और धर्म की रक्षार्थ प्राणोंका उत्सर्ग किया था। इस जाति के द्वारा निर्मापित भनेक गगनचुम्बी विशाल जिन मन्दिर हैं । जिनमें १६वीं-१२वीं शताब्दी तक की प्रतिष्ठित प्रशान्त मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। अनेक ग्रंथ, ग्रंथ-भंडारों में रचना कराकर और उन्हें प्रतिलिपि कराकर मुनियों, भट्टारकों, अजिंकानों और श्रावक-श्राविकामों तथा मन्दिर जी में भेंट किये हुए मिलते हैं। संवत् १२८७ में एक खंडेल परिवार की प्रेरणासे 'णेमिणाहचरिउ' नाम का ग्रंथ मालवा के परमारवंशी राजा देवपाल के राज्यकालमें कवि दामोदर द्वारा रचा गया था। अनेक विनों ने टीका ग्रंथ लिखे। ये सब कार्य उसकी धर्मनिष्ठा के प्रतीक हैं।