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बैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह उन्होंने अपनी रचनाओं में उनका आदर के साथ स्मरण किया है। यह बूढ़िया' जिला अम्बाला के निवासी थे। इनके पिता का नाम किसनदास था और जाति अग्रवाल और गोत्र वंसल था। इन्होंने चतुर्थवय में मुनिव्रत धारण कर लिया था । यह संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान थे। इनकी पचास से अधिक हिन्दी की पद्मबद्ध रचनाएँ उपलब्ध हैं। उन रचनाओं में अनेक रचनाएँ ऐसी हैं जो भाषा और साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । जैसे अनेकार्थनाममाला (कोष) सीतासतु, टंडाणारास, मादित्यव्रतरास, खिचड़ीरास, साधुसमाधिरास, मनकरहारास और रोहिणीव्रतरास मादि'। इनकी इस समय उपलब्ध रचनाएँ संवत् १६५१ से १७०० तक की उपलब्ध हैं। जो चकत्ता बादशाह अकबर, जहांगीर शाहजहां के राज्य में रची गई हैं। एक ज्योतिष और वैद्यक की रचना भी इन्होने संस्कृत में रची थी, जो कारंजा के शास्त्र भंडार में सुरक्षित हैं। इनके रचे हुए अनेक पद और गीत आदि हैं, इनकी सब रचनाएँ विभिन्न स्थानों पर रची गई हैं । उनमें से कुछ रचनाओं में रचना के कुछ नाम भी निर्दिष्ट किये हैं। उनके नाम बूढ़िया (जि० अम्बाला) दिल्ली, आगरा, हिसार, कपिस्थल सिहरदि' और संकशा आदि हैं। कवि की प्रायः सभी रचनाएं मैनपुरी, दिल्ली और अजमेर के शास्त्र भंडारों में सुरक्षित हैं। इससे स्पष्ट है कि कवि को देशाटन करने का उत्साह था। अगलपुर में कवि को अधिक समय तक ठहने का अवसर मिला है और वहां के तत्कालीन शासक अकबर, जहांगीर और शाहजहां तीनों को अत्यन्त निकटता से देखने का अवसर मिला है। इसीसे उन्होंने उनकी प्रशंसा की है। उस समय आगरा उच्चकोटि के शहरों में गिना जाता था और व्यापार का केन्द्र बना हुआ था, वहां अनेक जैन राज्यकीय उच्चपदों पर स्थित थे, सैनिक आफिसर, कोषाध्यक्ष और उमराहों के मंत्री एवं सलाहकार रहे हैं। वे सब वहां की अध्यात्म-गोष्ठी में सरीक होते थे। कवि की कुछ रचनाओं में रचना समय मिलता है। संवत् १६५१ में अर्गलपुर जिनवन्दना', १६८० में
१. बूढ़िया पहले एक छोटी सी रियासत थी, जो मुगलकाल में धन-धान्यादि से खूब समृद्ध नगरी थी।
जगाधरी के बस जाने से बुढ़िया की अधिकांश प्राबादी वहां से चली गई। आजकल वहाँ परखंडहर
अधिक हो गए हैं, जो उसके गत वैभव की स्मृति के सूचक हैं। २. गुरु मुनि माहिंदसेन भगौती, तिस पद-पंकज रैन भगौती। किसनदास वणिउ तनुज भगौती, तुरिये गहिउ व्रत मुनि जु भगौती ॥ नगर बूढ़िये बस भगौती, जन्मभूमि है मासि भगौती। अग्रवाल कुल वंसल गोती, पण्डित पद जन निरख भगौती ।।३।।
-वृहत्सीतासतु, सलावा प्रति ३. देखो अनेकांत वर्ष ११ किरण ४-५ में कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएं शीर्षक मेरा लेख ४. कपिस्थल को कांपिल्य और संकाश्य भी कहा जाता है । यह पांचाल देश की राजधानी थी। पाणिनीय
की काशिकावृत्ति में (४-२,१२१ में) कांपिल्य की विशालता का वर्णन है। यह जैनियों के १३वें तीर्थकर विमलनाथ की जन्मभूमि है। ५. यह नगर इलाहाबाद और जौनपुर के मध्य में बसा हुमा था, यहाँ अग्रवाल जैनियों का निवास था।
उनमें कवि दरगहमल और उनके पुत्र विनोदीलाल भी थे। सिहरदि शब्दका मर्थ पहले शहादरा समझ लिया गया था, पर वह गलत था। ६. देखो, जैन सन्देश शोषांक ५, पृ० १८२, २२ अक्टूबर सन् १९५६ ।