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________________ प्रस्तावना १५५ स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत कवि इन्हीं की आम्नाय का था। पर इनमें से किसका शिष्य था यह कुछ ज्ञात नहीं होता। ८८वी, १०८वीं, और १०६वीं ये तीनों प्रशस्तियाँ क्रमश: 'मियंकलेहाचरिउ' सुयंधदसमी और मउडसत्तमी कहा रास की हैं, जिनके कर्ता पंडित भगवतीदास हैं। मृगांक लेखाचरित में चार सन्धियां हैं, जिनमें कवि ने चन्द्रलेखा और सागरचन्द्र के चरित का वर्णन करते हुए चन्द्रलेखा के शीलव्रत का माहात्म्य ख्यापित किया है। चन्द्रलेखा विपदा के समय साहस और धैर्य का परिचय देती हुई अपने शीलव्रत से जरा भी विचलित नहीं होती, प्रत्युत उसमें स्थिर रहकर उसने सती सीता के समान अपने सतीत्व का जो अनुपम आदर्श उपस्थित किया है, वह अनुकरणीय है। ग्रंथ की भाषा यद्यपि अपभ्रंश है, फिर भी उसका वह रूप हिन्दी भाषा के अधिक नजदीक ही नहीं है किन्तु उसके विकास का स्पष्ट बोधक है । जैसा कि उसके निम्न दोहों से स्पष्ट है । "ससिलेहा रिणयकंत सम, धारइ संजमु सारु । जम्मणु मरण जलंजली, दारण सुयणुभव-तारु ।। करितणुतउसिउपुरगयउ, सो वणि सायरचंदु । ससिलेहा सुरवरुभई तजि तिय-तणु अइणिदु । लहि गरभवु णिरवाण पर पावसि सुंदरि सोइ । कवि सुभगौतीदासु कहि पुणभव-भमण रण होइ ॥ सीलु बड़ा संसार महि सील साहि सब काज। इहि भवि पर भविसुह लहइ आसि भणइ मुनिराज ॥" कवि भगवतीदास ने इस ग्रन्थ को हिसारकोट नगर के भगवान वर्धमान (महावीर) के मन्दिर में विक्रम संवत १७०० अगहन शुक्ला पंचमी सोमवार के दिन पूर्ण किया है। उस समय वहां मन्दिर में ब्रह्मचारी जोगीदास और पं० गंगाराम उपस्थित थे। १०८वीं प्रशस्ति 'मउडसत्तमीकहा की है जिसमें मुकुट सप्तमी के व्रत की अनुष्ठान विधि और उसके फल का वर्णन किया गया है। १०६वीं प्रशस्ति 'सुयंधदसमी कहावतरास' की है, जिसमें भाद्रपद शुक्ला दशमी के व्रत का विधान और उसके फल का कयन किया गया है। कवि-परिचय पंडित भगवतीदास काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगण के विद्वान् भट्टारक गुणचन्द्र के पट्टधर भ० सकलचन्द्र के प्रशिष्य और भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे। महेन्द्रसेन दिल्ली की भट्टारकीय गही के पटधर थे। इनकी अभी तक कोई रचना मेरे देखने में नहीं आई और न कोई प्रतिष्ठित मूर्ति ही प्राप्त हुई है। इससे इनके सम्बन्ध में विशेष विचार करना सम्भव नहीं है । भ० महेन्द्रसेन प्रस्तुत भगवतीदास के गुरू थे, इसी से १. रइयो कोट हिसारे जिणहरि वर वीर वड्ढमाणस । तत्थठिमो वयधारी जोईदासो वि बंभयारीमो ॥ भागवह महुरीया वत्तिगवर विति साहणा विणि । मइ विवह सुगंगारामो तत्थ ठिमो जिणहरेसु मइबंतो॥-मगांकलेखाचरित
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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