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जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह
सुभाय- देवि जगसारी,
सो कंद जो बिहह लिहावर, रस-रसड्डु जो पढ पढाव | जो पयत्थु पयडेवि सुभग्वहं, मणि सह करेह सुभन्वहं ।
द देवरायांदा घर, होलिवम्मु करणु च उपाय कर ।
महु वराहु खमड भंडारी । दय-धम्म-पवत्तणु विमल सुकित्तणु विसुवतहो जिणइंदहो । जं होइ सुधग्गणड हउ मणि मय्य तं सुह जगि हरिइंदहो ॥ इति श्री वर्धमानकान्बे श्रमिकचरित्रे एकादशमः संधिः । प्रति जैनसिद्धान्तभवन धारा लि० सं. १६०० २७ - भविसयत्त कहा (भविष्यदत्त-कथा) कवि श्रीधर, रचनाकाल सं. १२३० आदिभाग:ससि-पह जियचराई सिव-सुइकरवाई पाविवि विम्मल
हु चरितु जेा विस्थारिउ, लेहाविव गुणियण उवयारिठ । होउ संति पीसेसहं भव्वहं, जिस-पय-भक्त विर्यालय-गब्वहं ।
गुण- भरि ।
महाममि पविमल सुत्र पंचमिकलु भविसयत्त- कुमरहो चरित
वरिल सयल-पहुमि घरवारह, मेह-जालु पावस-वसुहारहं । घरि-घरि मंगल होड सडण्याड, दिणि-दिणि धण धरणाहं संपुरणउ ।
होउ संति चडविह जिया-संघ हु, देवास गराह दुबहु । दर सास वीर-जिदिहो, सेणिवराय - रिंद - णिवासहो । मंदर - सिरि होउ जम्मुच्छ, घरि-घरि दुदुहि सद्दु तुच्छ ।
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सिरि चंदवार यर-हिए, जिया धम्म-करण उक्कट्टिएय । माहुर-कुल-गयण तमीहरेण. विदुयण सुबण मण घण हरेण । पारायण - देह समुग्भवेय, मा-वय-काय हिदिय-भवेण ।
सिरि वासुएव गुरुभायरे, भव- जलविहि-विड-कायरे ।
बीसेसें सविलक्ख गुग्णालय, मइवर सुपट्ट यामालएव ।
होठ सयल पूरंतु मणोरह, परमानंद पवट्टड इह सह । अमिय-विड उस एव यद, जगि अगि मिवि दुरिय- सिकंदछ । विरावेह सम्मन्त दय किज्जड, सास-सह-शिवासु महु दिग्जउ । आल्हा साहु साह महुद, सज्जन्य-अयम-यययानंद । होहु चिराडल थिय-कुल-मंडलु, मग्गहा- जब दुइ-रोह विहंडलु । 1
विगएव भणिड जोडेवि पाणि, भक्ति कह सिरिहरु भब्वपाथि । इह दुल्लहु होइ जीवहं यार त
बीसेसई सं-साहिय परतु । जड़ कहव लहर दहयहो वसेब, ठग भमंतु जिउ सहरसेब । ता विजय जाइ गन्मे वि तेमु, वायाहट खसर पसु जेमु । अह लहइ जम्मु वा बहु-विहेहिं, रोयहिं पीडिज्जइ दुइ-गिहेहिं ।
होठ संति संचल परिवारहैं. भक्ति पवड गुरु-वय-धारहँ । पउमदि सुबियाह गदिहु, चरण सरगु गुरु कह हरिइंदहु ।
हीवाहित कम्बु रसह, पड विरहड सम्मह अवियहाँ ।
१ यह पाठ जैनसिद्धांत भवन धाराको प्रतिमें नहीं है।
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जह बिडिय मायरि अब खामोयरि अवहेर विनमणि प्रासु पय-पाय-विहीगड आयइ दीयउ तासो यवि जी बेह सिसु ॥२
हड आय माय मह मइए, साई परिपालित मंथर गइए ।