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________________ जैनग्रन्थ- प्रशस्तिसंपर १‍ अप्पा किं भयामि हरी कम्पयरो सायरो- सुरसेखो । तयड वले भणि वि जाणिज्जह, बंधव - सुथाहिं सम्माणि । तुरियड अब सुपटु । में, णं णं अप्पपर्ससा परविंदा गरहिया खोये ॥ ५ ॥ अप्पा जेण धुवं बुद्धिविहीरोय बिंदिय तेण । पुक्कार वह जो पहायरो पायो तह वि ॥ ६ ॥ जो जोडद्द विग पथा विसुद्धा जिखबरेहि जह भणिया । सिरु दरसिउ कामें । एयहं ग्रीसेसई कम्मक्खड, जिणमयर महं होठ दुक्खक्खउ । या ते चि सरसो भवियायण वच्छलो तह वि ॥ ७ ॥ सुन्दर भवियां पिसुरण चढक्काय भब्वजणसूलं । age धवले कथ' हरवं स-स-सोहां कन् ॥ ८ ॥ अस्थसार उदो सपरि मुक्कु, प्रयायाणिप्याइयउधवलु कम्बुमयोहरु एहु कसिउ सविग्रक्खयहि, करहु कवण जण गुणमहायरु ॥ १ ॥ जिणखाइहोकुसुमंजलि देवखु, गिम्भू मरणगुणिवर पण वेप्पि । पवर परिय हरिवस कवित्ते, अप्पट पर्याडिड सुरहो पुत्ते ॥ १० ॥ x x मज्भुविए जि कज्ज या घराणें, चहु संघु महीयलि दउ, जिवर पथ-पंकय एवं ढड । ख हु आउ पिसुणु खलु दुज्जणु, दुट्ट दुरासद सिंदिय सज्जणु । एउ सत्थु मुणिवर पढिज्जड, भतिर भविणेहिं पिसु णिज्जड । जाम याहं गणि चंद-दिवायर, कुल गिरि-मेरु-महीयल - सायर | पीथे बंसु ताम अहिद, सज्जया सुहि मचाई अदि । बारह सयहं गयई कय हरिसई, अट्टोत्तरं महीयले वरिसई । कसा पक्खे अग्गइये जाए, X कई चक्कव पुग्वि गुणवंत, धीर धर ?) सेणु होतंड सुपसिद्धउ । HT पुग्णु सम्मत जुत सरागड, जेण पमाणगंथु किड चंगड | देवदि बहुगुण जस भूसिड, जे वायर जिरिंदु पयासिठ । वज्जसुउ सुपसिद्ध सुणिवरु, य-पयागु- गंथु किट सुरु | मुमसे सुजोय जेण, पउमचरिउ सुणि रविसेणेण । जिससे हरिवंसु पवित्त, afe मुणो वर गचरन्तु । विज्ञ दिवसे ससिवार समायए । घचा -- बारह सयई गंधह कयई पडिएहि र-वया जय-मय-दर-सु-विरधरखु एड सत्थु संपुण्य इस सिरि सुकमालसामि मयोहर चरिए सुदर पर गुणयासियरसभरिए विवुहसिरि सुकइ सिरिहर विरहए साहु पोधे पुत्त कुमार यामंकिए सुकुमा वसामि सम्वत्य-सिद्धि गमयो याम छट्ठो परिच्छेद्यो समत्तो ॥ संधि ६ ॥ । ॥ १३ दिणय से चरि भणंग हो, पउमसेणे प्रायरिय पा बहो १० - हरिवंस पुराणु (हरिवंश पुराण) धवलकवि आदि भाग:कोयाय दोहावं ये मि-दली-कह-केसर सुसोहं । मह पुरिस तिसद्विदवं हरिवंस सरोरुह जवठ ॥ १ ॥ से जे अमियारा, विरहय दोस विवज्जिय सोहलु । जिय चंदप्पह चरिउ मणोहरु, पाव-रहित धरणयन्त सु-सुंदरु | मि किम एमाइ बहुसई, विहुसेण रिसिएव चरिचहूं । हरि-हुवाथ कहा चडमुह वासेहिं भालियं जह या । सह विरयमि लोब पिया जेय गं यासह इंसयां पढरं ॥ २ ॥ सीइदि गुरुबे अणुवेा, पर देवें गवयार सुबेहा । विस-मीसिब वरवीरं जह सा चारित खंडियारी । rone इंसय महयं मिच्छत्तकः वियं कथं ॥ ३ ॥ जह गोतमेव भणियं सेखियराए पुष्क्रियं जह था । अह जिसे कम वह विश्वमि किंपि उहे ॥ ४ ॥ सिद्धसेगु जे ए धागर, भविय विलोय पपासिय चंगढ ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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