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________________ १७७ वीरसेवा-मंदिर-ग्रन्थमाला २० होलू (२ रा पुत्र लखमदेव) ४८ होलू (भ्राता खिउसी) ७५,७६ होलू साहू १०० होट्टलु होलिवम्मु होलिवम्मु (चतुर्थ पुत्र सहसराज) होलिवम्मु ५३ ८१,८३ १०२ वीं पासणाह चरिउ को प्रशस्ति का अंतिम अंश पृ० १२६ (यह अंश प्रेस से खो गया पुनः प्रन्य से लेकर दिया जा रहा है।) अन्तिम भाग : इगवीरहो णिव्वुई कुच्छराई, सत्तरिसहुँचउसयवत्थराई। पच्छई सिरिणिवविक्कमगयाइं, एउणसीदीसहुं चउदहसयाई॥ भादवतमएयारसिमुणेहु, वरिसिक्के पूरिउ गंथु एहु । पंचाहियवीससयाई सुत्तु, सहसइं चयारि मंडणिहिंजुत्तु ।। बहुलक्खणमूगासुउ वरिठ्ठ, पाणंदमहेसर भाइ जेछ । जसु पंचगुत्तसीहतियाई, हुआ करम-रयण महमयणराई ।। सो करम उलेविणु सज्जणांह, माहासइ गुणियण गुणमणाहं । जो दुविहालंकारइ मुणेइ, जो जिणसासणि दंसणु जणेइ ॥ जो सम्मत्तायरुगुणप्रगव्वु, जो प्रायम-सत्थई मुणइं भव्यु । जो जीवदव्व तच्चत्थभासि, जो सद्दासद्दहं कुणइं रासि ।। गुणयास भाउ संवग्गु भेइ, जो वग्गु वमा मूल जि मुणेइ । जो संख असंख अणंत जाणि, जो भव्वाभव्वहं कय पमाणि ।। जो घण घण मूलहं मुणइं भेड़, सो सोहिवि पयडउ गंथुएउ । अह णमुणइं तो मझुत्थ होउ, अमुणंतह दोसु म मज्झ देउ । पत्ता:-जिण समय पहुत्तणु गुणगणकित्तणावसविमहिवित्थारइ। हउं तसु पयवंदमि अप्पउ गिदमि जो सम्मत्तुद्धारइ ॥९॥ सो णंदउ जिणु सिरिपासणाहु, उवसग्गविणासणु परमसाहुं । णंदउ परमागमु णंदिसंघु, णंदउ पुहवीसरु परिदुलंधु ॥ दउ पउरमणु अहिंसभाउ, बुहयणु सज्जणु अमुरिणयकुभाव । णंदउ सिरि वाम्ह हो तरणउवंसु, कीलउ रिणयकुलिजिमसेरहिं हंसु ॥ णंदउ जिणधम्म पिबद्धराउ, लोणायरु सुम हरिबम्ह ताउ । वंदउ एंदणु सहुं भायरेहि, घाटम्मता उपहसिय मरणेहिं ।। णंदउ लहुभायरु सहुं सुएण, परमत्यु जेण बुज्झिउ मणेण ॥ यंदउ अवरुवि जिरणसमयलीणु, खउजाउ दु? मिच्छत्तु हीण । वंदउ जो पयडइ पास चित्तु, मातम सारंकिउ गुण विचित्तु ॥ जो सुरगिरि रविससि महिपमोहि, ता चउविह संघहं जणंहिं बोहि । प्रसुवालु भणइ मई कयउ राउ, जिणु केवललोयणु मज्झदेउ ।।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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