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________________ १७८ जैन ग्रन्थ- प्रशस्ति-संग्रह किंचोज्ज जासुघरिजं हवइ । भो कि सेवय रहो तं ग देह ? पत्ता - जा जिरणमुहरिगग्गय सग्ग सुभंगम गिरनइ लोगहो सारी । जं किउ हीरगाहिउ काइमि साहिउ तमहु खमउ भंडारी ॥६॥ इय पासरगाह चरिए प्रायमसारे सुवग्ग चहुंभरिए बुह असवाल विरइए संघाहिप सोणिगस्स कष्णाहरण सिरिपासरगाह गिव्वारण गमरणोरणाम तेरहमो परिच्छेनो सम्मत्तो ॥ १३॥ तृतीय परिशिष्ट ( पृ० १५०) का वड्ढमारणचरिउ प्रशस्ति का अन्तिम भाग (तृतीय परिशिष्ट के छप जाने पर भाद्रपद में व्यावर के ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन में प्राप्त ग्रंथ से नोट की हुई वड्ढमारणचरिउ प्रशस्ति का अंतिम भाग यहाँ दिया जा रहा है) । इह वोदाउ रगयरे मरणोहरे, विप्फुरंत गारगाविह सुरवरे । जायसवंस सरोय दिणेसहो, श्रणुदिणु चित्त रिगहित जिरणेस हो । गरवर सोमई तणु संभूवहो, साहु रोमिचंदहो गुणभूवहो । वयणें विरइउ सिरिहररणामें, तियरण रक्खिय असुहर गामें । ..' बोल्हा' गब्भ समुब्भव देहें, सव्वयरहिं सहुँ पर्याडयणेहें । एउ विरज्जिय पावखयंकरु, वडमाराजिरणचरिउ सुहंकरु । रिवsविक्कमाइच्च हो कालए' रिगव्वुच्छव वर तूर खालए । एयारह सएहि परिविगर्याह, संवच्छर सय रणवह समेयहि । जे पढम पक्खई पंचमिदिणे, सूरुवारे गयगंगारिण ठिइयणे । होउ संति संघ हो चउभेयहो, वड्ढउ बुद्धि सुयरग संधाय हो । रामयंदु रियकुल हरिदीवउ, प्रमुरिणय वरिस सहासई जीवउ । सिरिचंदु व चंदु व परियट्टउ, सम्मत्तामलसिरिश्रायट्टउ । विमलचंदु चंदु व जरणवल्लहु, होउ भ्रमुक्कउ लच्छिए दुल्लहु । यहि यिहि तिहिप रियारियर, जिरणवर धम्मानंदे भरियउ । मिचंदु महियले चिरु दिउ, जिरण पायारविंद महिवंदउ । यो गंथ हो संख मुरिगज्ज हो, वे सहास सय पंच भरिगज्ज हो । घसा - इयचरिउ वीरगाहहो तर उ साहु गेमिचंदहो मलु । श्रवहरउ देउ गिव्वाणसिरि, वुहसिरिहर हो वि गिम्मलु । इयसिरि वड्ढमारणतित्थयरदेव चरिए पवर गुण रयरण गिय भरिए विबुहसिरि सुकइ सिरिहर विरइए साहु सिरि गेमचंद प्रणुमणिए वीरगाह रिगव्वारणगमरणो णाम दहमो परिच्छेश्रो सम्मत्तो । - ऐ० पलालाल सरस्वती भवन व्यावर प्रति ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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