SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह एस विय पावे गुण वि चमक्किड, चिह कह कन्वहं चिंति विसंकिउ । जहिं वम्मीय वास सिरि हरिसहिं, कालियास पमुहहि कह सरिसहिं । वाण-मयूर-हलिय-गोविंदहि, च उमुह अवरु सयंभु कइंदहिं। पुप्फयंत-भूपाल-पहाणहि, अवरेहिमि बहु सत्य बियाणहिं । विरईयाई कबह णिसुणेप्पिणु, अम्हारिसह ण रंजइ बुहयणु । हउँ तह वि घिट्ठन्तु पयासमि, सत्थ रहिउ-अप्पर प्रायासमि । पत्ता-जा सुरवइ करिमत्त , तो किं अवरु महन्वउ । जइ दुदहि सुरुसह, तो किं तूर म वज्जउ ॥३॥ जह पायासं विणयासुउ गउ, तो किं अवरु म जाउ विहंगउ। जइ सुरघेणुय जणयादिणि, दुज्झइ तो किं अवर गणंदिणि । जह कप्पड मु फलइ मोहरु, तो किं फलउ णाहिं अवरु वि तरु । जह पवहइ सुर-सरि मंथर-गइ, तो किं प्रवर नाहिं पवहउ ह । जइ कह पवरहिं रइयह कब्बई, सुंदरराइं वरणहिमि अउब्बइ । हउंमि किंपि नियमह अणुरूवें, विरए वि लग्गउ काई बहूवें । जइ विण लक्खणु छंदु बियाणमि, अवरु निबंटु णाहि परियाणमि । णालंकारु कोवि अवलोइड, गवि पुराण-प्रायमु-मणु ढोयउ । मई पारंभिय तो वि जडते, वरकह जिणधम्महो अणुरत्त । पिसुणते सुंदर मइ दूसह, हीणु णियवि सुयणत्त पोसह । पत्ता-मह किं पच्छमि एह, अब्भस्थित रोसालो। जिम दुद इंगालु, धोयड धोयड कालो ॥४॥ किंकरह पिसुणु संगहिय पाउ, छुड महु सरसह जीहग्ग थाउ । खुडणीहरंतु सुदर पयाई, लखियाई बद्ध भासा-गयाई। छुडु गय-विरोहु संतवउ प्रत्यु, छुडु होउ वयणु सुदरु पसत्थु । आयएणहो बहुविहु-मेय-भरिउ, हउं कहमि चिराणउ चारु चरिउ । वइयरेंहि विचित्तु सुलोयणाहे, णिव पुत्तहो मयणुक्कोवणाहें ।। वयवति हिहय मिच्छत्तियाहें, वर-दिढ-सम्मत्त-पउत्तियाहें। जंगाहा-बंधे प्रासि उत्त, सिरि कुदकुंदनगणिणा शिरुत्त । तं एम्वहि पद्धडियहि करेमि, परि किं पि न गूढउ अत्थु देमि । ते णवि कवि गउ संखा लहंति, जे अत्थु देखि बसणहिं घि (खि) वंति। पत्ता-कहियं जेण असेसु मिच्छत्ताउ मोहाइ । अवर वि बहुत्तव पाउ, तं जीवासिउ तुह॥६॥ इय सुलोयणाचरिए महाकब्वे महापुराणे दिलिप गणिदेवसेण-विरइए पढमो परिच्छेनो सम्मत्तो ॥१॥ चरमभाग: णंदउ सुइरु जिकिदहो सासणु, जय सुहयरु भन्वयण सासणु । णंदउ पयजें धम्मु पयासिउ, पाढउ जेण सत्थु उवएसित । साहु-बग्गु-रयणत्तय धारउ, णंदउ सावउ वय-गुण धारउ । दाणु देह इंदिय बल-उमर, वेज्जावच्चु करेउ मुणि-पवरहं । गंदउ परवह सह परिवार, पालिएण गिरु णिययायारें। यंदउ पय-पय मुच्चड पावें, जिज्जड जिण-धम्म-पहावें। बीरसेण-जिणसेणायरियह, प्रायम-भाव-मेय-बहु-भरिया।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy