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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
लक्खणु सव्वाउ समाणु साउ, वित्थायड विहिणा जणिय-राउ । सो इत्थ तत्थ हिंडंतु पत्तु, पुरे विल्लराम लक्खणु सु-पत्तु । मणहरु जिणहर तणुरुह पवित् । ते णिज्जिउ सिरिहरु परम मित्तु । विरदा णंदणु सम्माण घणउ, लक्खण हो समउ सो करइ पणउ । तहे जि सणेहु णिभरु महंतु, दिण दिण तं अइसय बुद्धि जंतु । भद्दवए पवुट्ठए मेहुणीरु, असराल-बारि-पोसिय- सरीरु। जं एयारह मए मासि फारु, णिवडहणहारु उ णिभरुत्तु सारु । खर-कय पर्यड-बम्हंड-पूरु, जं जिइ णिहरु तवइ सूरु। सुवणहो सुवणेसहु णाहु जंजि, चिरु वह भोकह चित्त तंजि ।
इण्हं चरितु जो को वि भन्छु, परिपढइ पढावइ गलिय-गन्छ । जो लिहइ लिहावइ परमु मुणइ, 'भावह दावइ कहइ सुणइ । जो देह दिवावह मुणिवराह, जह तह सम्मइ पंडिय पराह । सो चक्कट्टि पर प्राइ करिवि, पालिवि सबकत्तण लच्छि धरिति । अणुहुँज्जिवि संसारिय-सुहाइ, सव्वइ दिन्वइ पयलिय-दुहाइ । उबहियाहिल सुहरस-पयासि,
पच्छइ गरछह णिवुह णिवासि । घत्ताबारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं विक्कम कालवि इत्तउ पढम पक्खि रविवारइ छठि सहारह पूस मासे सम्म
सम्मइसण णाण णिरु सम्मच्चरिय विसालु । तं रयणसउ सिरिहरहो अहिरक्खउ चिरकालु ॥
-श्रामर भंडार प्रति. सं. १४ सुलोयणोचरिउ (सुलोचनाचरित
गणिदेवसेन आदिभागवय-पंच-तिक्ख-णहरो पवयण-माया-सुदीह-जीहा चारित्त-केसरड्ढो जिणवर-पंचाणणो जयऊ ॥१॥ तिहुवण-कमल-दिणेसु शिरणासिय-घण तिमिरपयडिमि चरिउ पसत्थु पणविवि रिसह-जिणेसह
जह अहिणव पण दसणे ताव विहंसणे चंद कवउगं हुल्लियइ सिरिहरुसिरिसाहारउरय-परिहारउलक्खपणाणहर सुल्लियइ
एवरेक्कदिणम्मि महाणुभाउ, आभस्थि विलहो घत्थ-पाउ । पभणिड भो बंधव अइ पवित्त , विरइव्वउ जिणयत्तहो चरित्त । तहो वयणे मई विरइउ सवोज, बणिणाहो ववसायउ मणोज । पद्धडिया बंधं पायडत्य, प्राइहि जाणिज्जसु सुप्पसस्थु। सयलह पद्धडिया एइ हुँति, सत्तरि एवज्जु दस य दुरिण संतु । एयइ गंथइ सहसइ चयारि, परिमाण मुणिहु अक्खर वियारि । हउ""रक्खरु खलिय लज्ज, ण वियाणमि हेयाहेय-कज । पय-बंध णिबंधु ण मुणमि किंपि, मह-विरइड संपइ चरिउ तंपि ।
णिवमम्मलहो पुरि शिवसते, चारुवाणे गुणगणवतें। गणिणा देवसेणमुणिपवरे, भवियण-कमल-पवोहण-सूरें। जाणिय धम्माहम्म-विसेसें, विमलसेण मलहारिहि सीसें। मणि चिंतित किं सत्याभासें, गिफलेण णिरु बयणायासें। जस्थ व धम्म-जुत्त रंजिय सह, विरइज्जह पसत्य-सुदर-कह ।