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________________ ४४] वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला तहो पुत्त वीरदासुवि गुणंगु, जो बारह भावण अणुचितइ, पिय साधाही रूवं अणंगु । अप्प-सरूव भिएणु तणु मण्णा । तहो णंदणु णामें उदयचंदु, दिउढा जसमुणि पथि पवित्तवि, पिय-माय-कुमुयवणणाइ इंदु । काराविउ हरिवंसु-चरित्तुवि ।। तुरियउ एंदणु डूमासयत्तु पत्तापाहुलही पिय करमसिंह वुत्तु । जामहिं णहु सायरु चंदु दिवायर ता णंदउ दिउढा हु कुलु पत्त जे विण्हुहि चरियउ कुरु-वंसह सहियउ काराविउ हय-पाव एयाहिं मज्झि णंदणु तइयो, दिउचंद साहुहिं कि वरिणज्जइ। इय हरिवंसपुराणे कुरुवंस-साहिट्ठिए विबुह-चित्ता दिउढाणामें सुद्धमणु सिह सुदसणु इव जाणिज्जइ । रंजण-मिरिगुणकित्ति-सीसु मुणिजसकित्ति-विरहए साधु अरहंतुवि एक जि जो मायइ, दिउढाणामंकिए णेमिणाह-जुहिटिर-भीमाज्जुण-णिब्वाण ववहार सुद्धा भावह। गमण (तहा) णकुल सहदेव सब्वट्ठसिद्धि-गमण-वण्णणं जो तियाल रयणत्तउ अंचह, णाम तेरहमो सग्गो समत्तो ॥ संधि १३॥ चउणिोय रुह-कहव ण मुच्चइ । (लिपि सं. १६४४ पंचायती मंदिर दिल्ली शास्त्र भंडारसे चउविह संघहं दाणु कयायरु, २३-जिणरत्ति कहा (जिनरात्रिव्रत कथा) मंगल उत्तम सरण विणय-परु । जिणवरु थुइवि तिकालहिं अंचइ, भट्टारक यशःकीर्ति आदिभाग:धणु ण गणेइ धम्म-धणु संचह । जो परमेट्टि पंच आराहइ, पणविवि सिरिमंतहो अइसय-जुत्तहोवीरहो नासिय-पावमलु पंचवि इंदिय-विसयई साहह । गिच्चल मण भब्वहं विलिय-गन्वहं अक्खमि फुड जिण जो मिच्छत्त पंच अवगण्णा, रत्ति फलु पंचम गइ णिवासु मणि मण्णा । परमेट्ठि पंच पणविवि महंत, जो अणुदिणु छक्कम्म णिवाहइ, तइलोय णमिय भव-भय-कयंत । दाण-पूय-गुरु-भसिहि साहह । जिण-चयण-विणिग्गय दिव्ववाणि, जो छज्जीव-निकायह रक्खइ, पणमेवि सरासइ सहखाणि । छह दम्वहं गुण-भाव गिरक्खा । णिग्गंथ उहय-परिमुक्क-संग, सत्त-तच्च जो णिच्चाराहा, पणवेवि मुणीसर जिय-अणंग। सत्त-वसण दूरेण पमायह।। पणविवि णियगुरु पयडिय-पहाउ, सत्तवि दायारह गुणजुत्तड, फलु अक्खमि जिणरतिहि जहाउ । इह परसत्त भयहं जो चाड । अन्तिमभाग :अट्ठ मूलगुण जो परिपाला, णिसुणिवि गोयम भासिउ पिराउ, उत्तर गुण सयल वि संभाला। बउ गहिउ झत्ति मणि करि विराउ | सदसण-अटुंग-रयण-धर, जिणु बंदिवि तह गोयमु गणेसु, मज्ज-दोसु परिवज्जण-तप्पर । णिय णयह पत्तु सेणिउ गरेसु । एव णव णयवि पयत्थई बुज्मा , दह-तिउण वरिसि विहरिवि जिणेंदु, दह-विह धम्मग्गहण वि रुच्चा । पयडेवि धम्मु महियलि अणेंदु । एयारह पडिमडं जो पालइ, पावापुर पर मज्झिहि जिणेसु, बारह वयई णिच्च उज्जान । बेदिय सह उज्झिवि मुसिईसु ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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