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________________ जैन ग्रन्थ- प्रशस्तिसंग्रह जिग- पट्ठ महु णिरुवम होंति, चरि पुराण गुणेण महंति । देवाहिदेव दय करहिं मज्भु, महु भक्तिभाउ पय होउ तुज्भु । घत्ता पश्यतु विरश्य सत्य प्रणेय, चरिय पुराणामय बहु भेइय । वह महु वित्तिय माह, सत्य चंदि गायर करु ढाह । विरएप्प करणा एहु दिपु हत्थि संघाहिवहो । साट्ट चित्रिणा संघाहिव वित्तिणा सम्मारिणउ ति बहुजि बहु . घत्ताf सुरिवि का। रिंगम्मलमइगा पडि जंपिज्जइ सुहमरिण गा हरिसिंघ पुत्तं गुणगणजुत्ते हंसिवि विजयसिरि णंदणेण ॥ 1 अन्तिम भाग:मइ प्रणते प्रक्खरविसेसु, उ मुमि कब्व पुरणु छंदलेसु । मधिट्ठत्तणेण रयउ सत्यु, गउ बुज्झिउ सद्दासद्द प्रत्थु । दुज्जरण सज्जरण ससहाव जे वि, महु मूढउ दोसु मलेउ कोवि । attrare मरिण विरयरु तत्त्थ, संथवउ अणु वज्जिवि प्रणत्थ । जं अहियक्खरु मत्ताविहाउ, तं पुसउ मुरिवि जरियारपुराउ । चउदह सय वण्णव उत्तरालि, वरिसइ गय विक्कमराय कालि । गोयल डुंगरराय रज्जि, fast as वरणा विहिय कज्जि । तहि रिगव -सम्माणें तोसियंगु, बृहयहं विउि जं णिच्च संगु । करुणावल्ली वरण घवरणकंदु, सिरियरवाल कुल कुमुदचंदु | सिरि भोया गामें हुवउ साहु, संपत्तु जेरण घमें लहाउ । तहुणालाही गामेण भज्ज, प्र साहुहारण सा पुण्गकज्ज । तहु णंदण चारिउ गुरगोहवासु, ससि - रिह - जस-भर पूरिय- दिसासु । खेमसिंह पसिद्ध महि गरिछु, क रिगट् ठु । मद्दराजु महामइ तहु असराज दुहिय जरग प्रासकर, पाल्हा कुल-कमल- वियास-सूर । एहु गरु जो खेमसीहु, वणिय एत्थु भव- भमरण-वीहु । तहु णिउरादे भामिरिण उत्त, गुरु-देव-सत्थ-पय-कमल-भत्त । तहि उयरि उवण्णा विणि पुत्त, वक्यत्तु जि जगवय सभक्खि, भद्दव मासम्मिस पेय पक्खि । पुर्णामि दिरिंग कुजवारे समोई, सुहयारें सुहरगामें जलोइं । तिहु मासयति पुण्णु हूउ, सम्मत्तगुणाहिणिहार घूउ । जिराहु पिया महु चरमदेहु, अविचल केवल लच्छीहि मेह । विष्णारण-कला-गुण- सेणि-जुत्त । पढम संघाहिउ कमलसीहु, जो पयलु महीयलु सिव-समीहु । गामेण सरासइ तहु कलत्त, बीई जिस सेविय - पायभत्त । भवि भवि तिस्थंकर मज्झ देउ, होउ गुरु गिग्गं वि भलेउ । संज्जउ बोहि-समाहि-लाहु, संसार महण्णव दिष्ण थाहु | उत्तमखमाइ वह भेय धम्मु, संभव दयावरु भुवरण रम्मु । हे वीयराय जिरण. जरिणय भोउ, मग्गमि णाहं संसार भोड़ । विह दाणें पीरिणयसुपत्त, ग्रह-रिसु विरइय जिरगरगाह जत्त । तहु द गामें मल्लिदासु, सो संहत्तउ सुह गइ रिणवासु । संघाहिव कमलहु लहउ भाउ, गामेण पसिद्ध मोयराउ । तहु भामिरिण देवइ गाम उत्त, विहि पुत हि या सोहइ सत । १७
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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