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________________ वीरसेवामन्दिर प्रन्थमाला णामेण भणिउ गुरु चंदसेणु, पुणु पुरणपालु लहुवउ परेण । घत्ताइय परियण जुत्तउ एत्यु णिरू कमलसीह संघाहिव । चिरु णंदउ एत्यु पसण्णु मणु णिहय-दुहिय-जणमा(उ) इ॥ णंदउ वीर जिणेसहु सासणु, लोयालोय सरूव-पयासः । गंदउ सूरि चरित्तचरंतउ, सिरि जसकित्ति महातव तत्तउ । गंदउ वसुहाहिउ वसुधारर, चउवण्णस्स संति पययारउ । णंदउ सयलु महायशु सारउ, घय रिणय मायरु कलिमलु हारउ । रिणय समयहि घणु अविरल धारहि, वरिसउ णिच्च चित्त सुह यारहिं । मेइणि सयल-सालि गिप्पज्जई, घरि घरि मंगल विहि संपज्जई। घरि घरि सव्वहु जिरण अंचिज्जइ, घरि घरि पत्तदारा रिण दिज्जइ । गंदउ कमलापह संघाहिउ, भोयराय सहु पवर गुणाहिउ । घत्तापाडिजंतउ बुहणहि इह सत्थु प्रसत्थु संपत्थउ । गंदउ चिरु वीढम्मि थिरु पयडिय जे परमत्थउ ॥३६॥ इय सिरि सम्मत्त गुणरिणहाणे णिरुवम-संवेयभावसुपहाणे सिरि बुहु-रइघू-विरइए सिरि-संघाहिव-कमलसीह-णामंकिए पहावणंगगुण-वण्णणोणाम चउत्थो संधिपरिच्छेउ समत्तो॥ संधि ४॥ ४१ अरिट्ठणेमिचरिउ (हरिवंशपुराण) आदिमागःसुर-वइ-सय वंदहु तिजय प्रवदह सिरि परिदुणेमिह चरणं । पणविवि तहु वंसहु कह जय संसह, भणमि सवण-मण सुद-रमणं ॥६॥ नोट-इस धत्ता के अनंतर 'जय जिण उसह (उभय) सुहकारण । जय जय मजिय भवंतुह तारण' रूप से चतुर्विशति तीर्थकरों का स्तवन दिया है। जिण-मुह-णिग्गय देवि भडारी, वाएसरि तिल्लोय-पियारी। साय-वाय-विहि-पयइण-सारी, मिच्छावाय-वाय-प्रवहारी। केवलणाए-पमुह गुणधारी पणवेप्पिरशु सामिणि सुहयारी। चउदह सय तेवण जिण वणिहि, णिच्च-भव्व-मण-उप्पाइथ दिहि । कम्म-दारु-पज्जालण-खरसिहि, भोयरण-काल वसहि सावय-गिहि । विसयसेणु धुरि अति जि गोयमु, ते पणवेप्पिणु पयडिय गोयमु । जाह प्रसूत्रकमि जे मुगिजाया, गाणंभोरिणहि जह विक्खाया। देवणंदि वाएसरि-भूसिउ, जेहि जहरिंणद-वायरण पयासिउ । जिसेण वियवखरण विगयतंड जेण महापुराण किउ पयंड। तह रविसेणु सु-तव-विप्फुरिउ, ते रामायण-सायरु-तरियउ । एवमाइ बहुसूरि अणुक्कमि, संजायउ रिसि-पुंग-मुरिणतमि । कमलकित्ति उत्तमखम-धारउ, भब्वह भव-अंबोरिणहि-तारउ । तस्स पट्ट करणयट्टि परिट्ठिउ, सिरि-सुहचंद सु-तव-उक्कट्ठिउ । घत्तासईसण पाणइंचरिय-समारण्इं प्रह-रिणसि भावंतउ सुमरिण गुरुपय सेवंतउ तच्च-सुणंतह रिणवसिय जा पंडिय भवरिण । ताम अगुव्वय-धरण-पहावें, पीणिय सावय-जण सुहदाणे। एयादह पडिमा गुणठाएँ, तित्तउ सिद्धतामय पाणे। सिरि-गुणकित्ति सूरि पयभत्ते, देह-भोय-संसार-विरत्तें। बंभयारि खेल्हा महिहाणे, माहासिज्झइ भव्व-पहाणे। भो रइधू पंडिय सुहभावण, पह बहु सत्य रइय सुह-दावरण। सिरि तेसहि पुरिस गुणमंदिर, रइउ महापुराण जयचंदिरु। कवि रइधू
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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