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वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला
ता गुरु भणियालाब सुणेप्पिणु,
इय सिरि घणकुमार चरिए कय सुह-भावण-फलेण रइधू बुहु जंपइ पणवेप्पिणु।
विप्फुरिए सिरि पंडिय-रइधू-विरइए सिरि पुण्णपाल-सुत पत्ता:
साधु सिरि भुल्लण-णामंकिए धरणयत्तजम्म वण्णणो णाम तुम्हहं पाएसें कविसेसें करमिण संसउधरममा पढमो परिच्छेग्रो समत्तो ॥१॥ परकारण वट्ट चित्ति पत्रट्टइ सेयोरुण कुवि णियमि जिणि||२
एंदउ महिवइ पाए पवीणु
एंदउ सज्जण यणु भरिय-दीशु । तं सुरिणवि भणइ गुणकित्ति एम,
एंदउ स-धम्मु सिव-सोक्खयारि, भो पंडिय तुह गढ मुहि केम ।
एंदउ जइवर वट्टय-भार-धारि । गोवागिरि णियड पएसि धम्मु,
इक्ख कु वंस-मंडण-मयंकु, पुरुषाल संडु णामेण मणु ।
सिरि पुरणपाल-सुप विगय-संकु। इक्खाइ वंसि तहिं चिरु वणेंदु,
एंदउ भुल्नण गामेण साहु, प्रगणिय जाया पणविय जिणेंदु।
णिउरादे वल्लहु दोह-बाहु । जसवालु जसायरु गुरण-महंतु,
महु होज्जउ विमलसमाहि-बोहि, करमू पटवारि जणि महंतु ।
जा दुग्गइ-गमणह पह-णिरोहि । तुहु एंदणु विरुवमु गुण-णिवासु,
णिय-कालें बरसिउ मेघमाल, महरिणसु जो मच्च जिणवरासु ।
गिहि निहि संमुह मंगल व माल । चउविह संघ विणयाणुरत्तु,
बहु-प्रत्य-समिबहु चरित्त एहु, सिरि पूनउ साहु सम्मि बत्तु ।
परिपुण्ण करिवि संवेय-गेहु । तुहु भज्जा सील गुणस्स खारिण,
पंडिएण समप्पउ पाव-णासु, सम्वहि य गाई तिस्थयर-वाणि ।
भुल्लण हु हत्यि पयडिय-पयासु । तिहुवण सिरि मुरिणयरण-पय-विरणीय,
तेण जि रिणय सीसि चढाविएण, सिरिहरसिरि जिम राहवहु सीय ।
पुणु पंडिउ पुज्जिउ पणमिएण । एहि संजणिया चारि पुत्त,
पत्तालक्खण-लक्खंकिय विणय-पुत्त ।
गुण मुणिहु पसाएं पयडिय-राएं सिद्धउ कन्व-रसाया । णिय-कुल-मयंकु पुणु पढ़मु ताहं,
सो पाइज्जंतर प्रत्य-समंतउ वट्टउ सुह-सय-भायातु ॥१६॥ भुलणु जि साहु पयडहु जणाहं ।
जिण गुण गणराएं वज्जियमाएं, बीयउ पुणु बुहयण-बण-निवासु,
चरिउ कराविउ एह व। सिरि रूले णामे जस-पयासु ।
तहु वंसु पसिद्धउ सुह जण रिद्धउ, तइयउ णंदणु मयरगावयारु,
पयडमि जमण-सुक्खकर। सिरि कामराजुणामेण साहु ।
घण-कण-जए-पुण्णउ सुह-रिणवासु, चउपर गंदणु मासण्णि वासु,
पुरुपालि संड परि विहिय तासु । प्रास्लु णामें सो फुल-पयासु ।
तहिं वणिवर जिण-पय-चंचरीउ, एयहिं जो पढमउ गुण-गरिछु,
भव भमए हु जो मुरिण णिच्च भीउ । सिरिभुल्लण गामें साहु सिद्छु ।
करमू पटवारिउ गुण-गरिटछु, पत्ता:
सोई सुणाई मुणि-दाण इट। पार उण पुरवरे मुह लच्छिषरे, तहिं पहुवहरि-णिकंदरणु ।
वह भज्जा रूवा ब्वसार, तोमरकुल मंडण परि-सिर खंडण, सिरिगरिदं गंदररा ॥३॥
णं सोल-वयह पढमिल्लकार । तहु एंदण एव एं रणव-पयत्यु,