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जनप्रन्ध-प्रशस्तिसंग्रह
जो दिणि-दिण एयई करह विहेपई,
मणुय जम्मु तहो पर सहलु ॥८॥ इयएफकम्मोवएसे महाका सिरि अमरकित्ति विहए महा कम्वे गुणपाल चिश्चिणिणंदण महाभब्य अंबपसायाशु ... मरिणए एक्कमणिण्णय वण्णणोणाम पढमो संधि समत्तो। मन्तिमभागः
ताई मुणिपि सोहेवि णिरंतह, होणाहिउ विरुद्ध णिहियक्खरु । फेडेवउ ममत्तु भावतिहि, प्रम्हहं उप्परि बुद्धि-महतिहि । छक्कम्मोवएस बहु भवियहो, वक्खाणिग्वट भत्तिइंगवियहो। . अंबपसायइंचच्चिणिपुत्त, गिह-छक्कम्म-पवित्त-पवित्ने । गुणवालहु सुरण विरयाविठ, अवरेहि मिणियमणि संभाविउ । बारह सयई समत्त-चयालिहि, विक्कम-संवरह विसालाहिं। गर्हि मि भइवयहु पक्खंतरि, गुरुवारम्भि चउहिसि वासरि । इसके मासे महु सम्मत्तिड, सहं लिहियड भालसु प्रवहत्थिड । गंदर परसासण-णिण्णासणु, सयनकाल जिगणाहहु सासणु । गंदड तहवि देवि वाएसरि, जिणमुह-कमलुम्भव परमेसरि । गदड धम्मु जिणिदें मासिड, गंदर संधु सुसीले भूसिड। शंदड महिवह धम्मासत्तड, पय परिपालण-गाय-महंतड । गंदउ भावयणु हिम्मत-सणु, भक्कम्महि पाविय जियसंसणु । पंदर अंवपसाउ वियाखणु, अमरसूरि-बहु-संधु सुखक्खणु । यंदा अवध जिण-पय-भत्तड, विबुह-वग्गु भाविय-ययत्तह।
पदर गिर तावहिं सत्यु हु अमरकिति-मुणि-विहिउ पयत्त । जावहि माहि मारुव-मेह-गिरि-याहयतु
अंब पसायणिमित्त ॥ १८॥ इय एक्कम्मोवएसे महाकइसिरि-अमरकित्ति-विरहएमहाकग्वे महाभब्य चपसायाणु मरिणए तव-दाणपरगणोणाम चवदसमो संधी परिच्छेमो समतो॥॥ ॥संधि४॥ ११-पुरंदर विहाण-कहा (पुरंदर्रावधान कथा)
अमरकीति मादिभागः
परमप्पय भावणुसुहगुण पावण, णिहणियजम्म-जरा-मरणु। सासय सिरि सुंदर पणय पुरंदर, रिसहुविवि तिहुयण सरणु । सिरिवीर जिणंदे समवसरणि, सेणियराएँ पुण्याणिहि। जिणपूय-पुरंदर विहिकहि कहिउ तं,
पाययणहि विहिय दिहि। अम्तिम भाग:
अवराइमि सुरगिरि सिहरत्यई, तह संदीसर दीवि पसस्थई। जाह वि बहु सुरवर समवाएँ, महम सए कय दुदहिनाएं। यहाइ कि सुरतह कुसुमिहि अंचर, हिरवाहि पुण्णविसेसे संचा।
जिण पूय पुरंदर विहि करइ एक्कवार जो एस्थ गरु । सो चंब पसाइड येह बहु अमरकित्ति तिय सेसह ॥
जिणदत्त चरिउ (जिनदत्तचरित)
पं लक्ष्मण, रचनाकाल सं० १२७५ मादि भागः
सप्पच सरकत हंसहो, हिवका सहो सेयंस वहा । भणमि भुमण करईसहो रणकलहंस हो यविवि जियहो जिरायत्त कहा।