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________________ जनग्रन्थ-प्रशस्तिसंगह [१०७ पत्ता : अन्तिमभाग:जो जिण गुणमाल पढेसइ मणि भावेसइ रिद्धि विद्धि जसु घत्ता ___ लहइ पउ। सिद्ध चक्क विहि रइयमई णरसेणु भणई णियंसत्तिए । जो सिद्धि वरंगण णारिहिं हयजर मारिहिं सुहु गरसेरणहं भवियण जणमण आणंदयरे करिविजिणेसर-भत्तिए ॥३६ परमपउ ॥१॥ इम सिद्ध चक्क कहाए पयडिय-धम्मत्थ-काम-मोक्खाए जिण वयरगाउ विणिग्गय सारी, महाराय चंपा-हिव सिरिपाल देव-मयणासुदरिदेवि-चरिए परणविवि सरसइ देवि भडारी। पंडिय सिरिणरसेण विरइए इहलोय-परलोय-सुह फल सुकइ करंतु कव्वुरसवंतउ, कराए रोर-दुह-घोर-कोट्ठ-वाहि-भवणासणाए सिरिपाल जसु पसाय बुहयणु रंजंतउ । रिणव्वाण-गमणोणाम बीओ संधि परिच्छेप्रो समत्तो॥ साभय वय महु होउ पसण्णी, संधि २॥ सिद्ध चक्क कह कहमि रुवण्णी । पुण परमेट्ठि पंच पण वेप्पिण, ७८ अणस्थिमिय कहा (अनस्तमित कथा) जिणवर भासिउ धम्मु सरेप्पिरण । कर्ता-हरिचन्द्र कवि विउल महागिरि आयउ वीरहो, प्रादिभाग:समवसरण सामिय जयवीर हो । वासरि मेल्लंतहं णिसि भुजंतह पाव पिसाएं गाहिय मण। तहो पय बंदण सेणिड चलियउ, गुण-दोस-वियारण सुह-दुहकारणु तं परमत्थु कहेमि जिणु ।। चेल्लणाहि परिवारह मिलियउ । प्राइ जिणिंदु रिसहु पणवेप्पिणु, तिणि पयाहिण देवि पसंसिउ, 'चउवीसहँ कुसमंजलि देप्पिण। उत्तमंगु भूरोवि रणमंसिउ । वड्डमारण जिणु परमविवि भावें, जाय ति भा मरि देविण णाह हो, कलिमल-कलुस-विविज्जिउ पावें। पणविवि बहु भाविहि हयमोहहो। संचालिवि अइरावउ गइंदु, गणहर रिणग्गंथहं पणवेप्पिण, जसु जम्म ठहवरण प्रायउ सुरिंदु । अज्जियाहं वंदणइ करेप्पिण। रिणउ मेरु सिहरि तिल्लोक पाहु, खुल्लय इच्छाकारु करेप्पिणु, प्राइ-विसम-कम्मवरण-डहरण-दाहु । सावहाणु सावय पुच्छेविणु। कलसेहिं हायउ सिंहासणत्यु तिरियहं उवसम-भाउ गरि दुउ , चल चामरेहिं विज्जिउ पसत्थु। पुणु गरिंदु णरको? णिविट्ठउ । बालउ णिएवि इंदस्स ताम, पुच्छइ सेणिउ वीर जिणेसर, जल संकपईसइ हियह ताम । सिद्ध चक्क फलु कहि परमेसर । ता प्रबहिणाणु परिकप्पियउ, ता उच्छलिय-वाणि सव्वंगहो, तें मेरु मंगट्ठइ चप्पियउ। सुय-सायर-पवरि तरंगहो । यर-हरिय धरणि बंभंडु खसिउ, पत्ता गिरि डोल्लिउ सुर-समूह तसिउ । गायमु गणि साहइ पण पडिगाहइ ए उद्देसे पयासइ। घत्तासिद्ध चक्क विहि इट्ठिय णिसुणि सइट्ठिय सेणिय कहिम परमेट्ठि पयासणु णिरुवम सासणु इंदि वण्णिय जासु गुणा। समासइ ॥२॥ जिण णवेवि पयत्तें फहमि हियत्ते थुइ प्रणयमिय सुणेहु जगा ॥१॥
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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