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________________ १३० जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह ग्रंथ की रचना वि० स० १४७९ में भाद्रपद कृष्णा एकादशी को बनाकर समाप्त की गई थी । ग्रंथ निर्माण में कवि को एक वर्ष का समय लग गया था । ग्रंथ निर्माण के समय करहल में चौहानवंशी राजा भोजराज के पुत्र संसारचन्द ( पृथ्वीसिंह ) का राज्य था । उनकी माता का नाम नाइक्कदेवी था, यदुवंशी भ्रमरसिंह भोजराज के मन्त्री थे, जो जैनधर्म के संपालक थे। इनके चार भाई और भी थे जिनके नाम करमसिंह, समरसिंह, नक्षत्रसिंह, लक्ष्मणसिंह थे । श्रमरसिंह की पत्नी का नाम कमलश्री था। उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे । नन्दन, सोरिग और लोगा साहु । इनमें लोगा साहू जिन यात्रा प्रतिष्ठा आदि प्रशस्त कार्यों में द्रव्य का विनिमय करते थे और अनेक विधान - 'उद्यापनादि कार्य कराते थे । उन्होंने 'मल्लिनाथ चरित के कर्ता कवि 'हल्ल' की प्रशंसा की थी । इन्हीं लोगा साहू के अनुरोध से कवि असवाल ने पार्श्वनाथ चरित की रचना उनके ज्येष्ट भ्राता सोरिणग के लिये की थी । प्रशस्ति में मं० १४७१ में भोजराज के राज्य में सम्पन्न होने वाले प्रतिष्ठोत्सव का भी उल्लेख किया है, जिसमें रत्नमयी जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा सानन्द सम्पन्न हुई थी । ग्रंथ कर्ता कवि प्रसवाल का वंश 'गोलाराड' (लार ) था । यह पण्डित लक्ष्मण के सुपुत्र थे । कवि ने मूलसंघ बलात्कार गरण के आचार्य प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दि, शुभचन्द और धर्मचन्द्र का उल्लेख किया है । जिससे कवि उन्हीं की आम्नाय का था । कवि कहां का निवासी था, और उसने अन्य क्या रचनाएं रचीं, यह कुछ ज्ञात नहीं होता । अतः ज्ञान भण्डारों में कवि की अन्य कृतियों का अन्वेषण होना आवश्यक है । १०३वीं प्रशस्ति 'संतिरगाह चरिउ' की है जिसके कर्ता कवि शाहठाकुर हैं । ग्रन्थ पांच संधियों में विभक्त है जिसमें जैनियों के १६वें तीर्थंकर, शान्तिनाथ का, जो कामदेव श्रौर चक्रवर्ती भी थे, जीवन-परि चय अंकित किया गया है । चरित संक्षिप्त और साधारण रूप में ही प्रस्तुत किया गया है । कवि ने यह ग्रंथ विक्रम संवत् १६५२ में भाद्र शुक्ला पंचमी के दिन चकत्तावंश के जलालुद्दीन अकबर बादशाह के शासन काल में, ढूंढाड़ देश के कच्छपवंशी राजा मानसिंह के राज्य में समाप्त किया है । मानसिंह की राजधानी उस समय अम्बावती या ग्रामेर थी । ग्रंथ कर्ता ने प्रशस्ति में अपनी जो गुरु परम्परा दी है उससे वे भट्टारक पद्मनन्दिकी आम्नाय में होने वाले भ० विशालकीर्ति के शिष्य थे। जो मूलसंघ नंद्याम्नाय सरस्वती गच्छ बलात्कार गरण के विद्वान थे, उनके भट्टारक पद्मनन्दि, शुभचन्द्रदेव, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र, चन्द्रकीर्ति, रत्नकीर्ति, भुवनकीर्ति, विशालकीर्ति, लक्ष्मीचन्द्र, सहस्रकीर्ति, नेमिचन्द्र, अर्जिका अनंतश्री और दाभाडालीबाईं का नामोल्लेख किया गया है । इनमें भट्टारक विशालकीर्ति विद्वान कवि के समकालीन जान पड़ते हैं । और उनमें दो परम्परा के विद्वान शामिल हैं। एक अजमेर पट्ट के और दूसरे आमेर या उसके समीपस्थ पट्ट के । भट्टारक विशालकीर्ति अजमेर - शाखा के विद्वान थे। और जो भट्टारक चन्द्रकीर्ति के पट्टधर थे। जिनका पट्टाभिषेक सम्मेद शिखर पर हुआ था ' । विशालकीर्ति नाम के अनेक विद्वान हुए हैं, परन्तु यह उनसे भिन्न हैं । ३. इगवीर हो णिब्वुइकुच्छराई, सत्तरि सहुँचउसय वत्थराई । पच्छई सिरि णिव विक्कम गयाई, एउणसीदीसहुँ चउदह सयाई । भादवतम एयारसि मुणे, वरिसिक्के पूरिउ गंधु एहु ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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