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________________ प्रस्तावना १२६ थे । प्रस्तुत कथा ग्रंथ की यह प्रति वि० सं० १५०८ की लिखी हुई है। अतएव उनका रचना समय सं. १५०८ से पूर्ववर्ती है । अर्थात् वे विक्रम की १५वीं शताब्दी के अंतिम चरण के विद्वान जान पड़ते हैं । ___eeवीं प्रशस्ति 'सिरिपाल चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि रइधू हैं। इसका परिचय ३५वीं प्रशस्ति से लेकर ४६वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। १००वीं प्रशस्ति 'पासणहचरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि तेजपाल हैं। जिसका परिचय २८वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। १०१वीं प्रशस्ति :सिरिपाल चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि दामोदर हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में सिद्धचक्र के महात्म्य का उल्लेख करते हुए उसका फल प्राप्त करने वाले चम्पापुर के राजा श्रीपाल और मैनासुन्दरी का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। मैनासुन्दरी ने अपने कुष्टी पति राजा श्रीपाल और उनके सात सौ साथियों का कुष्ट रोग सिद्धचक्र व्रत के अनुष्ठान और जिनभक्ति की दृढ़ता से दूर किया था। कवि ने इस ग्रन्थ को इक्ष्वाकुवंशी दिवराज साहु के पुत्र नक्षत्र साहु के लिए बनाया था। ग्रन्थ प्रशस्ति में कवि ने अपनी गुरुपरम्परा निम्न प्रकार व्यक्त की है। मूलसंघ सरस्वती गच्छ और बलात्कार गण के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दि, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, और कवि दामोदर । प्रस्तुत कवि दिल्ली पट्ट के भट्टारक जिनचंद्र के शिष्य थे। जिनचंद्र उस समय के प्रभावशाली भट्टारक थे, और संस्कृत प्राकृत के विद्वान् तथा प्रतिष्ठाचार्य थे। आपके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक तीर्थंकर मूर्तियाँ भारतीय जैनमंदिरों में पाई जाती हैं । ऐसा कोई भी प्रांत नहीं, जहां उनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ न हों। यह सं० १५०७ में भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित हुए थे और पट्टावली के अनुसार उस पर ६२ वर्ष तक अवस्थित रहे। इनके अनेक विद्वान् शिष्य थे, उनमें पंडित मेधावी और कवि दामोदर आदि हैं। इनकी इस समय दो कृतियाँ प्राप्त हैं सिद्धांतसार प्राकृत और चतुर्विंशति जिनस्तुति । इसमें दश पद्य हैं जो यमकालंकार को लिए हुए हैं। अने० वर्ष ११ कि० ३ कवि दामोदर ने अपना कोई परिचय नहीं दिया, केवल अपने गुरु का नामोल्लेख किया है। इनको दूसरो कृति 'चंदपहचरिउ' है जिसको प्रति नागोर के भट्टारकोय शास्त्र भंडार में सुरक्षितहै। उनका समय विक्रम को १६वीं शताब्दी है। बहुत संभव है कि इनको अन्य कृतियाँ भी अन्वेषण करने पर भंडारों में मिल जाय। १०२वीं प्रशस्ति 'पासणाह चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि असवाल हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में १३ सन्धियाँ हैं, जिनमें भगवान पार्श्वनाथ की जीवन-गाथा दी हुई है । ग्रंथ की भाषा १५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण की है, जब हिन्दी अपना विकास और प्रतिष्ठा प्राप्त कर रही थी। ग्रंथ में पद्धड़िया छन्द की बहुलता है, भाषा मुहावरेदार है। रचना सामान्य है। यह ग्रन्थ कुशात देश में' स्थित 'करहल' नगर निवासी साहु सोणिग के अनुरोध से बनाया गया था, जो यदुवंश में उत्पन्न हुए थे। उस समय करहल में चौहानवंशी राजाओं का राज्य था। इस १. कुशादेश सूरसेन देश के उत्तर में बसा हुआ था और उसकी राजधानी शौरीपूर थी, जिसे यादवों ने बसाया था। जरासंध के विरोध के कारण यादबों को इस प्रदेश को छोड़कर द्वारिका को अपनी राजघानी बनानी पड़ी थी। वर्तमान में वह ग्राम इसी नाम से प्रसिद्ध है। २. करहल इटावा से १३ मील की दूरी पर जमुना नदी के तट पर बसा हुआ है, वहां पर चौहान वंशी राजानों का राज्य रहा है। यहां चार जैन शिखर बन्द मंदिर हैं और अच्छा शास्त्र भण्डार है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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