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________________ ३२] वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला पत्ता (61) बाहुबलिदेव-चरिउ (बाहुबलि-चरित) जिण-समय-पसिन्द्वहं धम्म-सद्धिहं वोहणत्थु महसावयहं।। कवि धनपाल । रचना काल १९५४ इयरह महलोयहं पक्षिय-मोहहं परिसेसिष-हिंसावयह। प्रादिभाग: सिरिरिसहणाह-जिण-पय-जुयलु, मइ अमुणते अक्खर-विसेसु, न मुणमि पबंधु न ईद-लेसु। पणविवि णासिय-कलि-मलु । सहावसदु ण विहत्ति प्रत्यु, पुणु पढम-कामएवहो चरिउ, माहासमि कयमंगलु । धित्तणेण मह रहउ सत्थु । दुजणु सज्जणु वि सहावरोवि, साय-बाय-वयणं दरिसंती, महु मुक्खहो दोसु मलेउ कोवि। दुविह-पमाण-समुज्जल-णेत्ती। पद्धडियावधे सुप्पसगणु, पत्रयण-वयण-सण-गिर-कोमल, अवगमड अत्थु भब्वयणु तयणु । सह-समूह-दसण-सोहामल । होणक्खरु मुणेवि इयरु तस्थु, सालंकार-अहर-पडणावइ, संथवड एंणु वज्जेवि अणत्थु । पय-समास-भालुख-दलु भावह । जं अहियक्खरु मत्सा-विहाउ, गण चउ-णासा-सु-परिट्टिड, तं पुसउ मुणि वि जणियाणु राउ। दो-उवमोय-सवणजुउ-संठिउ । सय दुरिण छ उत्तर प्रस्थसार, विग्गह-तण-रेहागलि-कंदलि, पद्धडिय-छंदणाणा-पयार । णय-जुय-उरय-कढिण वच्छथलि | बुझहु ति-संहस सय चारि गंथ, मह वायरणुउ अरु जड दुग्गमु, बत्तीसक्खर शिरु-तिमिर-मंथ। अत्य-गहीर-गाहि-सुमणो रमु । चदु-दुहय सग्ग पिहु बिहु पमाण, दुविह-छंद-भुव-जुभ-जग-जणणिहिं, सावय-मय-बोहण सुद्ध-ठाण । जिणमय सुत्तसार माहरणहि । तेरह सय तेरह उत्तराल, तय-सिद्धत-तिबलि-सोहालत, परिगलिय विक्कमाइच्च काल । कह थलु तुंगुणियंबु विसालउ । सवेय रहसवहं समक्ख, वर-विरणाण-कलासकरंगुलि, कत्तिय-मासम्मि असेय-पक्ख । ललियर करई-कसण-रोमावति । मत्तमि दिण गुरुवारे समाए, अंग-पुन्छ ऊरू-णिभंतिए, घट्टमि रिक्खे साहिज्ज-जोए । पय-विहत्ति-लीलई पय-दितिए। नवमास रयंतें जयरत्यु, विमल-महागुण-णह-भा-भासुर, सम्मत्तउ कम कम पहु सत्थु । गाव-रस-गहिर-वीण तंतीसर। धत्ता हिम्मल-जस-भूसिय-सेयवर, . तिथंकर वयणुन्भव, विहुणिय-दुब्भवजण-वल्लह परमेसरि। पविमल-पंचणाण सुइकय कर। कव्व-करण महपावण, सुहसरिदावण,महुउवणउ वाएसरि। मा हुय अणुवय-रयण-पईव-पत्थे महासावयाण सुपसरण- मह उपरि होड पसरण मण मोह-पडल-णिण्णासणि। परम तेवरा-किरिय-पयडण समाथे सुगुण सिरि-साहुल- तियग्ण सुद्धिय तहणविवि पय-जिण मुह-कमल णिवासिणि॥ सुव-लक्खण-विग्इए भन्न-सिरि-कण्हाइस-यामंकिए गुज्जरदेस मज्मि णय-बट्टणु, सावयार-विहि-समत्तणो याम अट्टमो परिच्छेउ समतोमा वसह विउलु पल्हणपुर पहणु। 'प्रति सं० १५६५, वीसलएउ-उ-पय-पालट, (जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ६, ३ से) कुवलय मंडणु सयलुव मालउ ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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