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________________ प्रस्तावना १५६ वाले थे, जैनधर्म के प्रतिपालक थे। उनका नाम इंदुक या इन्द्र था और उनके पिता का नाम केशव था, वे जिन पूजादि गृहस्थ के षट्कर्मों का प्रतिपालन करते थे और अन्तर्बाह्य कालिमा को दूर करने का प्रयत्न करते थे । तथा 'मल्ह' का पुत्र नागदेव पुण्यात्मा प्रसन्नचित्त और भव्यजनों का मित्र था, वहीं रामचन्द्र संयमी गुणनिधान भी रहते थे। कवि ने इन्हीं पंडित रामचन्द्र के आदेश से और नागदेव के अनुरोध से उक्त ग्रन्थ की रचना की थी। उसी सलखरगपुर में संघाधिप कमलभद्र नाम के श्रेष्ठी थे, जो अष्टमदों से रहित, बाईस परीषहों के सहन करने में धीर, कर्म-शत्रुनों के विनाश करने में सावधान, त्रिशल्य, त्रिवेद और कषायों के हनन करने वाले और जिनधर्म की देशना में निरत रहते थे। कवि ने इस ग्रन्थ को परमार वंशी राजा देवपाल के राज्य में विक्रम संवत् १२८७ में बनाया था। प्रस्तुत देवपाल मालवे का परमार वंश का राजा था, और महाकुमार हरिश्चन्द्र वर्मा का, जो छोटी शाखा के वंशधर थे, द्वितीय पुत्र था, क्योंकि अर्जुनवर्मा के कोई सन्तान नहीं थी। अतः उस राजगद्दी का अधिकार इन्हें ही प्राप्त हुआ था। इनका अपरनाम 'साहसमल्ल' था। इनके समय के ३ शिलालेख और एक दान पत्र मिला है। एक विक्रम संवत् १२७५ सन् १२१८ का हरसोड़ा गाँव से और दो लेख ग्वालियर राज्य से मिले हैं। जिनमें एक विक्रम संवत् १२८६ और दूसरा वि० सं० १२८६ का है। मांधाता से वि० सं० १.९२ भाद्रपद शुक्ला १५ (सन् १२३५, अगस्त २६ का) दान पत्र भी मिला है। दिल्ली के सुलतान शमसुद्दीन अल्तमश ने मालवा पर सन् १२३१-३२ में चढ़ाई की थी। और एक वर्ष की लड़ाई के बाद ग्वालियर को विजित किया था। और बाद में भेलसा (विदिशा) और उज्जैन को जीता था और वहाँ के महाकाल मंदिर को भी तोड़ा था। इतना होने पर भी वहाँ सुलतान का अधिकार न हो सका। सुलतान जब लूट-पाट कर चला गया, तब भी वहाँ का राजा देवपाल ही रहा । इसी के राज्यकाल में पं० प्राशाधर जी ने विक्रम सं० १२८५ में नलकच्छपुर" (नालछे) में 'जिनयज्ञ कल्प' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, उस समय देवपाल मौजूद थे। इतना ही नहीं किन्तु जब दामोदर कवि ने संवत् १२८७ में सलखणपुर में 'रोमिणाह चरिउ' रचा, उस समय भी देवपाल जीवित थे। किन्तु जब संवत १. इंडियन एण्टी क्वेरी जि० २० पृ० ३११ २. इंडियन एण्टी क्वेरी जि० २० पृ० ८३ ३. एपि ग्राफिका इंडिका जि०६ पृ० १०८-१३ ४. ब्रिग फिरिश्ता जि० १ पृ० २१०-११ ५. नलकच्छयुर को नालछा कहते हैं यह धारा से १६ मील की दूरी पर स्थित है, वहां का नेमिनाथ का मन्दिर प्रसिद्ध था, उसी में बैठकर पं० प्राशाधर जी ने ग्रंथ रचना की। यह स्थान उस समय जैन संस्कृति के लिए प्रसिद्ध था। जिनयज्ञकल्प सं० १२८५ में यहीं बना। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट हैविक्रम वर्ष स पंचाशीति द्वादश शतेस्वतीतेषु, पाश्विन सितान्य दिवसे साहसमल्ला पराख्यस्य । श्री देवपालनृपतेः प्रमारकुमार शेखस्य सौराज्ये, नलकच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोऽयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥ जिनयज्ञकल्पप्रशस्ति । ६. प्रस्तुत सलखणपुर या सलक्षणपुर धारा में नालछे के पास-पास ही कहीं पर स्थित था। नागदेव इसी स्थान का निवासी और नागवंश का मणि तथा जैन चूडामणि था। उनके पिता का नाम माल्हा था, पौर वह देवपाल के राज्य में शुल्क, चुंगी या टैक्स विभाग में काम करता था। नागदेव ने एक दिन
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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