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________________ प्राक्कथन श्री परमानन्द जी जैन द्वारा लिखित इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का मैं स्वागत करता हूँ। इसमें ११४ अपभ्रंश स्तलिखित ग्रन्थों की प्रशस्तियों और पुष्पिकाओं का खोजपूर्ण संग्रह किया गया है। अपभ्रंश साहित्य हिन्दी के लिए मृत की धूंट के समान है । इसका कारण स्पष्ट है। भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश भाषा प्राचीन हिन्दी का एक महत्वपूर्ण रोड़ प्रस्तुत करता है। जब प्राकृत भाषा के प्रति उत्कर्ष के बाद जनता का सम्पर्क जनपदीय संस्कृति से हुआ और से साहित्यिक मान्यता प्राप्त हुई, तब अपभ्रंश भाषा साहित्यिक रचना के योग्य करली गई। सप्तम शती के प्राचार्य ण्डी ने अपने युग की स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा था कि आभीर आदि अनेक जातियाँ, जो राज्याधिष्ठित होकर परत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी थीं, उनकी जो उच्चारण क्षमता थी उनसे अपभ्रंश भाषा का न्म हुआ और उसे काव्य स्वरूपों में मान्यता प्राप्त हुई। याद होता है कि दण्डी से भी ३०० वर्ष पूर्व भाषा सम्बन्धी ह तथ्य भारतीय वाङ्गमय का अंग बन गया था; क्योंकि पश्चिमी भारत में आभीरों के व्यवस्थित राज्य का प्रमाण गगुप्तयुग के लगभग मिलता है। विक्रमोर्वशीय में जो अपभ्रंश भाषा के मजे हुए ललित छन्द पाए जाते हैं उन्हें कुछ द्वान् कालिदास की रचना मानते है और कुछ नहीं मानते हैं । विक्रमोर्वशीय के नवीनतम संशोधित संस्करण के म्पादक श्री वेलणकरने उन्हें महाकवि कालिदास की रचना मानकर अपने संस्करण में स्थान दिया है। हमारी धारणा हैं । इस विषय में अपने किसी पूर्वाग्रह को स्थान न देकर जो पारस्परिक अनुश्रुति है, उसे ही मान लेना ठीक है। महावि कालिदास ने संस्कृत और प्राकृत में जहां इतनी प्रभूत रचना की, वहीं उन्होंने विशेष रचना के अनुसार अपभ्रंश भी कुछ छन्द लिखे हों तो इसमें कोई पाश्चर्य नहीं, कहने का तात्पर्य यह कि अपभ्रंश की जो परम्परा इस प्रकार रम्भ हुई, उसे इस प्रकार बल मिलता गया और ८वीं शती के लगभग तो वह साहित्यिक रचना का भी एक प्रमुख 'ध्यम ही बन गई । सिद्धों की पद रचना अपभ्रंश में ही हुई । आगे चलकर नाथों ने भी इसी परम्परा को अपनाया। र जैन प्राचार्यों ने अपभ्रंश भाषा के माध्यम को अधिक उदार मन से ग्रहण किया। क्योंकि लोक में विचरण करने के रण वे जन सम्पर्क के अधिक निकट थे । ११वीं शती में लिखे गए 'कण्ठाभरण' नामक अपने ग्रन्थ में भोजदेव ने अपश के कुछ और विकसित रूप का उल्लेख करते हुए उसे अपभ्रंश कहा है । आगे चलकर उसी का रूप अवहट्ट भाषा हो IT, जिसका उल्लेख १५वीं शती के प्रारम्भ में विद्यापति ने अपनी कीर्तिलता में किया है । वस्तुतः विद्यापति की कीति ॥ और कीर्तिपताका ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें एक अोर अवहट्टभाषा और दूसरी ओर मैथिली इन दोनों का प्रयोग मिलाना किया गया है। विद्यापति से पहले ही लगभग ३०० वर्षों तक यही क्रम देखने में आया है । अर्थात् एक ओर अपस अवहट्ट के माध्यम से ग्रन्थ रचना होती थी और दूसरी ओर प्राचीन राजस्थानी, प्राचीन व्रज, प्राचीन अवधी और वीन मैथिली भाषाओं में स्वच्छन्द ग्रन्थ रचना हो रही थी। उनका अन्वेषण हिन्दी के आदिकालीन इतिहास का ज्वल प्रध्याय है। अपभ्रंश एवं अवहट्ट भाषा ने जो अद्भुत विस्तार प्राप्त किया उसकी कुछ कल्पना जैन भंडारों में सुरक्षित हेत्य से होती है । अपभ्रंश भाषा के कुछ ही ग्रन्थ मुद्रित होकर प्रकाश में पाये हैं। और भी सैकड़ों ग्रन्थ अभी भंडारों में सुरक्षित हैं । एवं हिन्दी के विद्वानों द्वारा प्रकाश में आने की बाट देख रहे हैं । अपभ्रंश साहित्य ने हिन्दी । केवल भाषा रूप साहित्य को समृद्ध बनाया, अपितु उनके काव्यरूपों तथा कथानकों को भी पुष्पित और पल्लवित
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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