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________________ किया । इन तीनों तत्त्वों का सम्यक् अध्यापन अभी तक नहीं हुमा है। जो हिन्दी के सर्वांगपूर्ण इतिहास के लिए प्रावश्यक है। वस्तुतः अपभ्रंश भाषा का उत्तम कोष बनाने की बहुत मावश्यकता है; क्योंकि प्राचीन हिन्दी के सहस्रों शब्दों की व्युत्पत्ति और अर्थ अपभ्रंश भाषा में सुरक्षित है। इसी के साथ-साथ अपभ्रंशकालीन समस्त साहित्य का एक विशद इतिहास लिखे जाने की प्रावश्यकता अभी बनी हुई है। जब हम अपभ्रंश के साहित्य की चर्चा करते हैं, तो हमारा मन उन अनेक ग्रन्थों की ओर जाता है जो ग्रन्थ भंडारों में बड़ी सावधानी से अभी तक सुरक्षित रक्खे गये हैं। उन ग्रन्थों का लेखन काल विक्रम की दूसरी सहस्राब्दि है। जैन लेखक अपने ग्रन्थों की प्रशस्ति अर्थात् प्रारम्भिक भाग में और पुष्पिका प्रर्थात अंत के भाग में देवता नमस्कार आदि के अतिरिक्त आचार्य, गच्छ, शिष्य परम्परा, सम सामयिक शासक, अपने आश्रयदाता, उसके परिवार, इष्टपूर्ति, धार्मिक कार्य, तिथि, सम्वत्, स्थान एवं लेखक-पाठक के सम्बन्ध में बहुत-सी महत्वपूर्ण जानकारी लिख देते थे। वह सब इतिहास और वाड़ मय के लिए महत्वपूर्ण है । जैन भंडारों से प्रोत-प्रोत संस्कृत ग्रन्थों की भी इस संबंध में ऐसी ही स्थिति है । जैन संस्कृत हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों के दो संग्रह पहले प्रकाशित हो चुके हैं। अब अपभ्रंश हस्तलिखित ग्रंथों से उसी प्रकार का यह संग्रह प्रकाशित हो रहा है। इसकी सामग्री भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जैसा कि पाठक देखेंगे कि इसमें लगभग १४० पष्ठों में प्रस्तावना के रूप में विद्वान सम्पादक ने अनेक ऐतिहा का संग्रह किया है और लगभग १५० पृष्ठों में ११४ हस्तलिखित ग्रन्थों से काव्यबद्ध अपभ्रंश प्रशस्तियों का संग्रह दिया है । अन्त में प्रशस्तियों में आये हुए आचार्य नाम, श्रावक नाम, संघ-गण-गच्छ नाम, एवं ग्रंथ नामों का उपयोगी संग्रह किया है। इनमें विशेषतः श्रावक-श्राविकाओं के नाम अध्ययन के योग्य हैं, क्योंकि वे अपभ्रंश और अवहट्ट भाषा रूपों के परिचायक हैं। यदि अपभ्रंश और प्राकृत ग्रन्थों एवं संस्कृत ग्रन्थों को प्रशस्तियों में पाये हुए समस्त स्त्री-पुरुषों के नाम रूपों पर अलग एक शोधनिबन्ध ही लिखा जाय तो वह अत्यन्त उपयोगी होगा। श्री परमानन्द जी ने तिल-तिल सामग्री जोड़कर ऐतिहासिक तथ्यों का मानों एक सुमेरु ही बनाया है। मुझे उनका यह परिश्रम देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। वासुदेवशरण श.प्रवाल प्राचार्य, भारती महाविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी २० जनवरी १९६३
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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