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________________ प्रस्तावना गुणकीति, यशः कीर्ति मलयकीर्ति और गुणभद्र के समय में जयसवाल कुलभूषण उल्ला साहू की द्वितीय पत्नी भावश्री के चार पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र पद्मसिंह ने लिखवाया था, उसकी पत्नी का नाम वीरा था, उसके चार पुत्र थे, बालू, डालू, दीवड़ और मयणवाल । उनकी चार पत्नियाँ थी, जिनके नाम मंगा या माणिणि, लखरणसिरि, मयणा और मणसिरि थी। मंगा से तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। रामचन्द, कमलनंद और वीरचन्द । इनमें प्रथम के दोनों पुत्रों की नंदा और पूना दो धर्म-पत्नियाँ थीं। इस परिवार संयुक्त पद्मसिंह ने जो धन-धान्य से समद्ध था, अपनी लक्ष्मी का निम्न कामों में सदुपयोग किया था । २४ जिनालयों का निर्माण कराया था और एक लाख ग्रन्थ लिखवा कर भेंट किये थे। इससे उसके धार्मिक कार्यों का परिचय सहज ही मिल जाता है। परंतु आज ऐसे जिन वागी भक्त सज्जन विरले ही मिलते हैं, जिनके द्रव्य का सदुपयोग जिनधर्म और जिनवाणी के प्रचार में होता हो। ११७ वी प्रशास्ति 'भविसदत्त चरित' की है जिसके कर्ता कवि श्रीधर थे। प्रस्तुत प्रशस्ति में उल्लखित माथुर कुलावतंस साह साधारण और नारायण नाम के दो भाई थे, साधारण की रु परिण नाम की पत्नी थी, उससे पांच पुत्र उत्पन्न हुए थे, सुप्पटु, वासुदेव, जसदेव, लोहडु और लक्खनु । इनमें सुप्पट की माता रुप्परिण ने इस ग्रन्थ को संवत् १५३० में लिखवाया था। ११८ वी लिपि प्रशस्ति भ० श्रुतकीति के हरिवंश पुराण की है। जिसे चंदवार दुर्ग के समीप स्थित संघाधिप की चौपाल में संवत् १६०७ में राम पुत्र पंगारव ने लिखा था । इस ग्रन्थ के लिखाने वाले के परिवार का प्रशस्ति में विस्तृत परिचय कराया गया है, जो एक पद्मावती पुरवाल वंश था। पाठक उसका परिचय मूल प्रशस्ति से देखें । परिशिष्ट नं. ३ (हस्तलिखित ग्रन्थ प्रशस्ति-परिचय) ११९ वीं प्रशस्ति रोहिणिविधान कहा' की है, जिसके कर्ता कवि देवनंदी हैं। इस कथा में रोहिणी व्रत के माहात्म्य का वर्णन करते हुए उसके फल प्राप्त करने वाले का कथानक दिया हुआ है, और उसके अनुष्ठान करने की प्रेरणा की गई है। इसके रचयिता देवनन्दी ने अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया, और न यही बतलाया कि उनका समय क्या है ? इस नाम के अनेक विद्वान हुए हैं । पर ये उन देवनन्दी (पूज्य पाद) से भिन्न और पश्चात् वर्ती हैं। यह किसी भट्टारक के शिष्य होना चाहिये । इनका समय संभवतः १४ वीं या १५ वीं शताब्दी होना चाहिये।। १२० वीं प्रशस्ति 'वड्ढमारणचरिउ' की है जिसके कर्ता कवि श्रीधर हैं। इस ग्रन्थ में जैनियों के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की जीवन-गाथा दी हई है। जिसमें १० सन्धियाँ और २३१ कडवक दिये हुए हैं जिनकी श्लोक संख्या कवि ने ढाई हजार जितनी वतलाई है । ग्रंथ में जैनियों के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की जीवन-गाथा अंकित की है । यद्यपि उसमें पूर्व चरित ग्रंथों के अनुसार ही वर्णन दिया है, किन्तु कवि ने उसे विविधवर्णनों के साथ सरस बनाने की चेष्टा की है। प्रस्तुत ग्रन्थ साह नेमिचन्द्र के अनुरोध से बनाया गया है। नेमिचन्द्र वोदाउ नामक नगर के निवासी थे और जो जायस या जैसवाल कुल कमल दिवाकर थे। इनके पिता का नाम साह नरवर और माता का नाम सोमा देवी था, जो जैनधर्म के पालन करने में तत्पर थे। साह नेमचन्द की धर्मपत्नी का नाम 'वीवा' देवी था। इनके संभवतः तीन पुत्र थे-रामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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