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________________ ६२] वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला णंदउ जिणवारद जिण-सासणु, बुहयण रोसु ण करहु महु उप्पार, दय-धम्मु वि भन्बह पासासणु । अहरोसें सोहिज्जहु गंथु वरि ॥ णंदउ णरवह पह पालंतउ, विसमड गामिणि वज्जउ मंदल, णंदउ मुणिगणु सुत-तउ-वंतउ॥ गच्चउ कामिणि होउ सुमंगलु । णंद जिण सुहमग्गि चरंतड, गुरयण वच्छल्लें पंडिएण, भवियणु दाण-पूय विरयंतउ । माणिक्कराज वज्जिय-मएण॥ कालि कालि धाराहलु वरिसर, तं पुण्णु करेप्पिणु एहु गंथु, दुक्ख-दलिह, दुहिक्खु विणिरउ ॥ टोडरमल्ल हत्थे दिएणु सत्थु । घरि-घरि णारिउ रहस ब्वउ, णिय सिरह चढाविउ तेण गंथु, घरि घरि मंगलु गीउ पदरिसउ । पुणु तुट्ठउ टोडरमल्लु हियइ गपि ॥ घरि-घरि संखु समुहलु वज्जउ, दाणे सेयांसह कण्णु तं पि, घरि-घरि लोउ सुहेहें रंजउ || पंडिड वर पट्टहिं थविउ तेण । चउविह संघह दाणह पोसणु, पुणु सम्माणिउ बहु उक्कवेण, जिणवरिंद-सुय-गुर-पय अरचणु । वर वत्थई कंकण-कुंडलेहिं॥ णंदउ टोडरमल्लु दयालउ, अंगुलियहि मुहिम णिय-करेहि. पुत्त-कलत्त-सुयण-पइ-पालउ । पुजिउ अाहारहि पुणु पुणु तुरंतु । जावहि मेरुचंदु रविणहयलि, हरि रोविव सजिड विणयं शिरुत्तु, णंदड एहु गंथु ता महियलि । गड णियरिं पंडिड गंथु तेण । भवियण लोयह पाढिज्जंतउ, जिण-गेहि णियउबहु उच्छवेण ॥ यंदउ चिरु दुक्खिउ विहुणंतउ ॥ तहि मुणिवर बंदहि सुक्क गैथु, विक्कमरायह ववगय-कालें, दिएणउ गुरु-हत्य सिवह-पथु । बे समुणीस विसर अंकालें । विस्थारिउ अत्यु वियारि तेण, पणरह सइ गुण्णासिह उरवालें, भब्वयणह सुहगइ दावणेण ॥ फागुण चंदिण पक्खिससिवालें। पुणु टोडरमल्लहं णिवसरि पुण्णह लिहयाइ गंथ बहुसुच्छविह जिणगिह मुणिसंघहं तव-वय-वंतहणाण दाणु तं दियणु बरु॥ णवमी सुह एक्खित्त सुहवाले, सिरि पिरथीचन्दु पसायं सुंदरें। शुभंभूयात् । प्रधान ११.. हुउ परिपुराणु कम्वु रस-मदिरु, प्रति आमेरभंडार लिपि सं १५३२ सज्जण-लोयह विणड करेप्पिणु ॥ ३५-सम्मइ-जिणचरिउ(सन्मति-जिन-चरित्र)कवि रइधु पिसुण-वयण कद्दमेण भरेप्पिणु, आदिभागविरयड एहु चरित्तु सुबुद्धिउ । जय सररुहभागहुँ वढियमाणहु वड्ढमापतित्येसरह । जह यहु अस्थ-मत्त होणउ हुउ, पणविवि पय-जमलं णह-पह-विमलं चरिउ भणमि तहहय सरह ता महु दोसु भन्बु म गहियउ॥ धीरस्साणंत वित्ति प्रमर-चदि-णुदं धम्मभूयादमाई, विणवह माणिक्क कई इम, बडा कम्मडवित्ति परमगुणस्साहिरामं जिणस्स । महु खमंतु विबुह गुणमंतिम । वंदित्ता पाय-पोमं ति-जय मणामुयं धम्मचक्काहिवस्स, भएणुवि अमुणते हीणाहित, वोच्छ भम्वत्थजुत्त प्रणह-सुहहरं तच्चरित पवित्त ॥३॥ मइ-जलेण जं कायमि साहिउ ॥ तं जि खमड सुयदेवि भडारी, फेवलणाण-सतणु-पहवंती, कायण-जण तिल्खोयह सारी। साय-बाय-मुह-कमल हसंती।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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