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________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [२३ जं कि पिहीण-अहियं विउसा सोहतु तं पि इयकन्ये । सुकवित्त-करणे मणे बद्धगाहु, निसिसमइवियप्पह एव साहु । घिद्वत्तणेण इयं खमंतु सव्वंपि महु गुरुणो ॥७॥ जाणिययं नमई कालक्खराई, न सुप्रउ बायरएउ सविस्थाई। यत्काव्यं चतुराननाऽजनिरतं सत्पद्यदानस्वकं । पय-छेउ-संधि-विग्गहु-समासु,मणि फुरहन एक्कवि मह-पयासु स्वैर भ्राम्यति भूमिभागमखिलं कुर्वन् बलशं क्षणात् । छंदालंकारु न बुझियउ, निग्धंटु तक्कु दूरझियउ । तेनेदं प्रकृत चरित्रमसमं सिद्धन नाम्ना परं, नवि भरहु स वु वक्खाणियउ,महकइ किउ कवु न जाणियउ प्रद्युम्नस्य सुतस्य कर्ण सुखदं श्रीपूर्व देवद्विषः ॥ सामग्गि न एक्क वि मज् पासि, उत्तरमि केव सबु रासि । (थामेर प्रति सं० १५७७ से और फरुखनगर प्रति माहिय सइ साहुविसरण मणू, इय चित्तवंतु थिउ एक्कु खणु सं० १९१७ से) कलहंसगमण ससिबिंब-वयण , विलुलंत-हार-सयवत्त-नयण । १६ पासणाहचरिउ (पार्श्वनाथचरित) कवि देवदत्त आदिभाग-: सिरिपासनाह-चरिए चउवमाफलेभवियजण-मणणंदे मुणिदेवचउवीसवि जिणवर दिट्टपरंपर, वंदवि मुढदिदि-रहित। यंदरइए महाकव्वे विजया संधी॥ वर-चरिउपणिदहो पासजिणिवंहो णिसुणिज्जउ वईयरसहिउ ॥ अन्तिभागःवंदवि जिणलोयालोयजाण, दुबई- देसिय गच्छि सीलगुण गणहरु, अत्तीद-प्रणागय-वट्टमाण । भविय सरोजनेसरो। पुणु सिद्ध अयंत महाजसंस , श्रास सुम्बु-रासि-अवगाहणु, जो मोक्ख-महासरि-रायहंसु । सिरि सिरिकित्ति मुणिवरो। आइरिश्र सुअंबुहि-पारु-पत्त, तहो परम मुणिंदहो भुषण भासि, सिद्धबहु कडक्खविणिहिय विचित्त । संजाउ सीसु तब-तेयनासि । उज्माय परम-पवयण-पवीण, नामेण पसिद्धउ देवकित्ति, बहु-सीस सुनिम्मल-धम्म-लीण। पुणु साहु महव्वय-बूढ-भार, बावीस-परीसह-तरु-कुठार । तहो सीसु तवेण अमेयतेउ, पंचवि परमेष्ठि महामहल्ल, गुणनाउ जासु जगि मउनिदेउ । पंचवि निम्मच्छर-मोह-मल्ल । गिब्वाण-वाणि गंगा-पवाहु, पंचमि कहिउ दयधम्मु सारु, परिचत्त-संगु तवसिरि-सणाहु । पंचहमि पयासिउ-लोय-चारु । तहो माहवचंदहो पाय-भत्तु, पंचहमि न इच्छिउ दुविहु संगु, पासीह सुयायरु सीस बुत्तु । पंचहमि निराउहु किउभणंगु । निशाहिय-वय-भर अभयणंदि, पंचहमि भग्गु-इंदिय-मडप्पु, निय-नाउ लिहाविड जेण चंदि । (चहि किउ-णिविसु-विसय-सप्यु । इस दुसम-कालि कुंकण बजेण, पंचवि परिकलिय-असेस-विज्ज, डोल्लंत धम्मु थिरु-कयउ जेण। पंचवि निव-निय-गुण-गण-सहिज्ज । ते दिक्खिउ वासवचंद सूरि, पंचहमि कलिडाणई समग्गु, में निहिउ कसाय-चउक्कु-चूरि । पंचहमि पयासिउ मोक्ख-मग्गु । भवियण-जण-नयणाणंदिराई, घत्ता उद्धरियई जे जिण-मंदिराई। पंचवि गुरुवंदवि मणिपहिणंदवि जिणमंदिरे मुणि अच्छह । तहो सीसु जाउ मुणि देवचंदु, पयउत्थ-मणोहरे अक्खर-डंबरे सुकवित्तहो मएउ गच्छह ॥१॥ अविलंब वाणि कब कुमुप्रयंदु।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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