SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनप्रन्य-प्रशस्तिसंग्रह [१३० पद्धडिया जहा जिण णामे ममग्गल मुमइ दप्पु, केसरि वसहो ण डसइ सप्पु । जिण णामे रण डहइ धन धमन्त, हुम वह जालासप पज्जलन्त ॥४१ जिण णामे जलणिहि देइ थाहु, मारण्णे वण्णु ण वधइ बाहु । जिण णामे भव सवसन संखलाई, टुट्टन्ति होन्ति खण मोक्कलाई ॥4२ जिण णामे पीडइ गहु ण को वि, दुम्मइ पिसाउ मोसरह सो वि । जिण णामे डुग्गम ख हिज्जन्ति, मरणुदिरण वर पुष्णइं उन्भवन्ति ॥४३ जिण णामे छिदे वि मोहजालु, उप्पज्जइ देवल्ल सामि सालु । जिण णामें कम्मइं णिद्दले वि मोक्खग्गो पइसिम सुह लहे वि ॥४४ छडुरिगया जहाजिण णाम पवित्ते, दिवसुव्वन्ते, पाउ असेसु वि छज्जइ। जंजिण मणे भावइ, तं सुह पावइ, दीणु ण कासु वि किज्नइ ॥४५ संगी प्रवज्ज अहिणम संहृत्तं तालमे मनिह सुणसु । सत्तच्छन्दो रूपं सत्तताले हुवे कव्वे ॥४६ पंचच्छन्दो रूमं पंचत्तालं च होइ कन्वम्मि । तेहिं रूएहि रइमं तित्ताल तं मुरिणज्जासुं॥४७ छन्दो रूएहिं विहिं जुमलं चक्कलममेव च चऊहिं । कुलभ सेसेहिं हुवे चक्क समं तेहि तेहितं ॥४॥ पत्ताछडुरिणमाहिं पद्धडिमा (हिं) सुअण्ण रूएहि । रासा बन्धो कव्वे जणमण महिरामनो होइ ।।४६ एक्क बीस मता णिहणउ उद्दाम गिरु । चउदसाइ विस्सामहो भगण विरह थिरु॥ रासाबंषु समिळु एउ अहिराम मरु । लहम तिपल भवसाग विरह प्रमुहर अरु ।।५० पराधीर जिण एव जपरिणहि बरसर णिला । पहप दुरिम संतावहरण गुरु मोह विलय ॥५१ जहा-प्रजइ विण वसुमइ मग्गहं इह को वि संचरइ । पइ किलेसे ससिणि सुद्दे प्रावि जइ फुरइ । तो वि एहु मोरी वाणि विलट्ठ कला गवइ । अहिणव घण पत्र पसरहि अवहंसे हि रसइ ॥५२ पंच संसार हमं बहुलत्थं लक्ज क्खण विसुद्धम । एत्थ सग्रंभुच्छन्दं अवहंसन्तं परिसमत्तम ॥५३ संवत् १७२७ वर्षे आश्विन सुदि पंचम्यां गुरी राम नगरे लिखित मिदं कृष्ण देवेन । Journal of the University of Bombay, Vol. V, November, 1936, Part III. ११० भविसयत्त कहा (कवि धणवाल) आदिभागजिण सासणि सा तु रिण म पाव-कलंक-मलु । सम्मत्त विसेसु निसुणहुं सुय पंचमिहि फलु ।। पण विप्पिणु जिणु तइलोय बंधु, डुत्तरतर भव णिबुढ खंधु।। भन्वयण वयण पंकय पयंगु, कय कसण मोह तिमिरोह भंगु । xxxx इय भविसत्त कहाए पयडिय धम्मत्थ काममोक्खाए बह धणवाल कयाए पंचमि फल वण्णणाए भविसयत्त जम्मवण्णगो नाम पढमो संघी सम्मत्तो।। अन्तिमभाग :पत्ताधक्कडवणिवंसि माएसरहो समुन्भविण। धणसिरि देवि सुएण विरइउ सरसइ संभविण ॥८॥ " दूरयर पणासिय पावरेणु, एह जा सा बुच्चई कामघेणु । फलु देइ जहिच्छिड मत्तलीइ, चिंतामणि बुम्बइ तेणे लोह। एह जा सा बुबा मुवणसंति, मह मुक्ख हो सुह सोवाण यति। सुर वल्लर परंपर मवरण मिमउ चरण कम (१) मानसं महण जलहिग परोस जाम समदम ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy