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________________ परिशिष्ट ३ प्रशस्ति संग्रह में छूटे हुए तीन ग्रन्थों को प्रशस्तियाँ रोहिरिण विहाण कहा (रोहिणि विधान कथा) ता पुणहि मरमु मणोहराई, देवनंदि विण मंतिय णिरूपम रिणय सुहाई। पादिमंगल तं णिसुणेव भासिउ सिरिहरेण बिणवरु वंदेविण भावधरे विण दिन्न वाणि गुरु भत्तिए । काणा बुहयण-माणस हरेण । रोहिणि उववासे दुरिय-विणासह फलु अक्खमि णियसत्तिए पता जंदुतउ तुम्हहि जुत्तउ तं पाइरेण सयाणमि । अन्तिम भाग णिय सत्तिए जिणपयभत्तिए तिहं विह तंपि वियाणमि ।।२ पत्ता X X X X रपणत्तयरिद्रुहं सील विसिट्ठहं जीवहंतिणु सुमिरतहं । इय सिरि बहुमारण तित्वयर देव-चरिए पवर-गुणदेवणंदिमुरिण भासइ दुरिय-पणासइ रोहिणिविहि- .. रयण-णियर-भरिए विवुह सिरि सुकइ सिरिहर-विरइए पालतहं॥ साह सिरि गेमिचंद णामंकिए, दिवाणणरिद-बहराय इति रोहिणि विधान समाप्तम् । वण्णणो णाम पढमो परिच्छेपो ॥१॥ बदमारण चरिउ (वर्षमान चरित) अन्तिम भाग. विवुध श्रीधर मन्त के सात पत्र न मिलने से मन्तिम प्रशस्ति नह मादिभाग दी गई। देखो, "अनेकान्त वर्ष" ४ कि.६। परमेट्टि हो पविमल दिढि हो चलण णवेप्पिणु वीर हो। (दूनी भंडार, जयपुर तमु गासमि परिउ समासमि जिय-दुज्जय-सरवीर हो॥१॥ संतिणाह चरिउ (शांतिनाथ चरित्र) अपना (इसके बाद वर्तमान चौबीस तीर्घकरों की स्तुति है)। शुभकीति देव मादि मंगलइक्कहिं दिपण परवर गंदगण, पणविवि सिरिकतहु उसह पवित्तहु केवल सिरिह सुकंतहु । सोमाजणणी पाणंदणेण । हर मक्खमि वर कह हो पविमल यह दिण्णचारु संजभवह । जिण चरण-कमल इंदिदिरेण, xxxx हिम्मलयर-मुणमणि-मंदिरेण । इय हय भासा (कइ) चक्क वट्टि सिरि सुहकित्ति देव जायस कुल-कमल दिवायरेण, विरइए महाभब्य सिरि रूपचंद मण्णिर महाकव्वे सिरि जिणिभणियागम-विहिणायरेण । विजय बंभमोणाम पढमो संघी समत्तो। णामेण गमिचंदेण वृत्तु, अन्तिम भाग-- भो कह सिरिहर सद्दह जुत्तु । जिह विरइउ चरिउ दुहोहवारि, इदि उहयभासा (कह) चक्क वट्टि सिरि सुहकित्तिदेव संसारुभव संतावहारि। विरइए महाभब्य सिरि रूपचंद मण्णिए महाक सिरि चंद्दपह-संति-जिसणेराह. संतिणाह चक्काउह कुमार रिणव्वाण गमणं णाम इग भब्बयण-ससेज-विणेसराहं। णीसमो संषि समत्तो। तिवाद विरयहि वीरहो जिणासु, लिपि सं० १५५१, नागौर मंगर समणयण विट्ठ कंचण तिणासु। इस पंथ की उक्त प्रशस्ति का भाग पं. कस्तूरचंद अंतिम तित्थयर हो पिरयरासु, जी काशलीवाल एम.ए. जयपुर महावीर शोध संस्थान गंभीरिय-जिय-रयणाय-रासु । से प्राप्त हुमा है, इसके लिए पाभारी हूँ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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